...तो वोट काटने के लिए लडते हैं निर्दलीय उम्मीदवार

...तो वोट काटने के लिए लडते हैं निर्दलीय उम्मीदवार
rajesh dwivedi सतना,  चुनाव लोकसभा का हो या फिर विधानसभा का। हर चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवारों कि भरमार रहती है यह बात अलग है कि निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव में सिर्फ वोट कटवा ही साबित हो रहे हैं, पिछले कुछ चुनाव से तो यही देखा जा रहा है । यद्दपि हर चुनाव में इनकी संख्या घट - बढ़ जाती है। सतना संसदीय सीट की बात की जाए तो यहाँ भाजपा और कांग्रेस के बीच ही हमेशा मुकाबला होता आया है क यहाँ मतदाताओं को कांग्रेस और भाजपा को छोड़कर किसी अन्य दल पर भरोसा नहीं है। यह बात अलग है कि 90 के दशक से सतना में बसपा मुकाबले को त्रिकोणीय रूप जरूर दे रही है और 1996 का लोकसभा चुनाव जीत भी चुकी है ,लेकिन राष्ट्रीय स्तर के दलों के उम्मीदवारों को छोडकर जितने भी उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं, उन सबको मिलने वाले वोटों को मिलाकर भी आंकड़ा एक लाख की संख्या को पार नहीं कर पाता है।कुल मिलाकर देखा जाए तो ज्यादातर निर्दलीय उम्मीदवार वोट को तरसते रहते हैं , वे चुनावी मैदान में होते हुए भी अपनी दमदार उपस्थिति नहीं दर्ज करा पाते. मैदान में कब कितने प्रत्याशी 1967 ; 05 1971 ; 05 1977 ;03 1980 ; 08 1984 ; 11 1989 ; 18 1991 ; 28 1996 ; 71 1998 ; 14 1999 ; 13 2004 ; 13 2009 ; 21 2014 ; 15 96 में थे 71 उम्मीदवार सतना संसदीय सीट के अब तक के चुनावी इतिहास पर यदि नजर डालें तो 1996 का लोकसभा चुनाव सबसे चर्चित था , इसकी दो बड़ी वजह थी पहली इस सीट पर कांग्रेस से अलग होकर तिवारी कांग्रेस से कुंवर अर्जुन सिंह चुनाव लड़ रहे थे , तो दूसरी वजह यहाँ उम्मीदवारों की संख्या थी क 96 में सतना से भाजपा , बसपा , कांग्रेस और तिवारी कांग्रेस के कुंवर अर्जुन सिंह सहित 71 उम्मीदवार चुनावी मैदान में थे क भाजपा ,कांग्रेस ,बसपा और तिवारी कांग्रेस के उम्मीदवारों को यदि छोड़ दिया जाये तो निर्दलीय मैदान में उतरे किसी भी प्रत्याशी ने दस हजार मतों का आंकड़ा पर नहीं किया. ज्यादातर वोट काटने , प्रत्याशी की मदद से ही लड़ते हैं जातीय समीकरण के तने - बने में उलझी आज की राजनीति में चुनाव अब सिर्फ चुनाव नहीं रह गए हैं क लोकसभा हो या विधानसभा का चुनाव किसी युद्ध कौशल से कम नहीं इन्हे जीतने के लिए पार्टी और प्रत्याशी द्वारा साम-दंड - भेद की निति अपनाई जाती है क यहाँ तक की अपने खर्चे पर कुछ ऐसे उम्मीदवार तक निर्दलीय रूप से खड़े कराये जाते हैं जो सामने वाले की वोट काटने में सक्षम हो जिसका फायदा चुनाव में उठया जा सके ्र मतदाता जानता है वोट की ताकत निर्वाचन कार्य से जुड़े जिम्मेदार लोगों की माने तो मतदाताओं को उनके मत का महत्व समझाने में चुनाव आयोग ने भी बड़ी भूमिका निभाई है क पिछले कुछ चुनवों से आयोग ज्यादा से ज्यादा मतदान पर जोर देता रहा है क इसके लिए सोशल मिडिया से लेकर अन्य माध्यमों का सहारा लिया गया क मतदान के लिए व्यापक प्रचार - प्रसार किया गया क इन्ही माध्यमों पर राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि भी ज्यादा तर अपनी बातें रखते हैं , जिससे मतदाता किसे अपना मत देना है इसका मन बानाता क वैसे भी लोकसभा के चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं ऐसे में आमजनमानस भी उसी उम्मीदवार को ज्यादातर अपना मत देता है, जो राष्ट्रीय दलों से जुड़े हुए बेहतर विकल्प होता है