शुद्र नही, ब्राह्मण थे महर्षि बाल्मीकि, प्रचेता और वरुण के वंशज थे

शुद्र नही, ब्राह्मण थे महर्षि बाल्मीकि, प्रचेता और वरुण के वंशज थे

महर्षि वाल्मीकि इतने बड़े ऋषि थे कि परम ब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान राम, लक्ष्मण ने  दंडवत प्रणाम किया। कम लोग जानते है कि वाल्मीक का वह आश्रम चित्रकूट से लगभग 20 किलोमीटर दूर  एक पहाड़ी पर लालपुर वस्ती के समीप था। इसी आश्रम में माता सीता निर्वाशित होने पर 16 वर्ष से अधिक रही। वाल्मीक जी ने रामायण की रचना राम के अवतार लेने से पहले कर दी थी। तुलसीदास  जी का जन्म स्थल इस जगह से केवल 15 किलोमीटर है। तुलसीदास  के रूप में वाल्मीक जी ने अवतार लिया था।
शुद्र नही ब्राह्मण थे महर्षि बाल्मीकि, जानिए क्यों कहा गया इन्हें बाल्मीकि।

इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड के पहले “श्लोक” की रचना करने वाले वैदिक काल के सुप्रसिद्ध आदिकवि महर्षि वाल्मीकि सनातन हिन्दू इतिहास में रामायण महाकाव्य के रचयिता के रूप में विश्वविख्यात है। महर्षि वाल्मीकि को न केवल संस्कृत बल्कि समस्त भाषाओं के महानतम कवियों में सर्वोच्चतम स्थान प्राप्त है।
वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए। आदिकवि वाल्मीकि आदिकाव्य श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में स्वयं का परिचय देते हैं। रामायण में भार्गव वाल्मीकि ने 24000 श्लोकों में श्रीराम उपाख्यान ‘रामायण’ लिखी ऐसा वर्णन है –
'“संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्र कम् ! उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना !! ( वाल्मीकिरामायण ७/९४/२५)' महाभारतमें भी आदिकवि वाल्मीकि को भार्गव (भृगुकुलोद्भव) कहा है , और यही भार्गव रामायणके रचनाकार हैं – '“श्लोकश्चापं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना ! आख्याते रामचरिते नृपति प्रति भारत !!" '(महाभारत १२/५७/४०)
विष्णु पुराण में इन्हीं भृगुकुलोद्भव ऋभु वाल्मीकिको २४ वे द्वापरयुगमें वेदोंका विस्तार करने वाले 24वे व्यास जी कहा है –  “ऋक्षोऽभूद्भार्गववस्तस्माद्वाल्मीकिर्योऽभिधीयते (विष्णु०३/३/१८) । यही भार्गव ऋभु २४ वे व्यासजी पुनः ब्रह्माजी के पुत्र प्राचेतस वाल्मीकि हुए । श्रीमद्वाल्मीकि रामायण में वाल्मीकि भगवान् श्रीरामचन्द्रको अपना परिचय देते हैं – 

“प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन ! (वाल्मीकिरामायण ७/९६/१८) 

स्वयं को प्रचेताका दसवां पुत्र वाल्मीकि कहा है । ब्रह्मवैवर्तपुराणमें लिखा है कि

 “ कति कल्पान्तरेऽतीते स्रष्टु: सृष्टिविधौ पुनः !

य: पुत्रश्चेतसो धातु: बभूव मुनिपुङ्गव: !!

तेन प्रचेता इति च नाम चक्रे पितामह: !”

अर्थात् कल्पान्तरोंके बीतने पर सृष्टाके नवीन सृष्टि विधानमें ब्रह्माके चेतस से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसे ही ब्रह्मा के प्रकृष्ट चित्त से आविर्भूत होनेके कारण प्रचेता कहा गया है ।
इसीलिए ब्रह्मा के चेतस से उत्पन्न दस पुत्रों में वाल्मीकि प्राचेतस प्रसिद्ध हुए । मनु स्मृति में वर्णन है ब्रह्माजी ने प्रचेता आदि दस पुत्र उत्पन्न किये।
“अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ! पतीत् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश !” मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलसत्यं पुलहं क्रतुम् ! प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च !! (मनु०१/३४-३५)
भगवान् वाल्मीकि जन्मान्तर में भी ब्राह्मण (भार्गव) थे और आदिकवि वाल्मीकि के जन्म में भी (प्राचेतस) ब्राह्मण थे । शिवपुराणमें कहा है प्राचेतस वाल्मीकि ब्रह्माके पुत्र ने श्रीमद्रामायणकी रचना की । 

पुरा स्वायम्भुवो ह्यासीत् प्राचेतस महाद्युतिः !

ब्रह्मात्मजस्तु ब्रह्मर्षि तेन रामायणं कृतम् !!

उनके पिता का एक नाम  प्रचेता भी था, जिस कारण महर्षि वाल्मीकि जी का एक नाम प्रचेतास भी कहा जाता है महर्षि भृगु महर्षि वाल्मीकि के सगे भाई थे। महर्षि वाल्मीकि का वाल्मीकि नाम उनके कड़े तप के कारण पड़ा था. एक समय ध्यान में मग्न वाल्मीकि के शरीर के चारों ओर दीमकों ने अपना घर बना लिया, जब वाल्मीकि जी की साधना पूरी हुई तो वो दीमकों के घर से बाहर निकले. दीमकों के घर (बांबी) को वाल्मीकि भी कहा जाता हैं, इसलिए ही महर्षि भी वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुए।
एक बार वाल्मीकि एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि बहेलिये ने प्रेम-मग्न क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'

महर्षि वाल्मीकि वे महान ज्ञानी एवं श्रेष्ठ पुरुष हुए जिन्होंने स्वयं सृष्टि निर्माता ब्रह्मा जी के आदेशानुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के जीवन चरित्र पर इस ब्रह्माण्ड के पहले काव्य रामायण की रचना की। आदि कवि वाल्मीकि ने ही प्रभुश्रीराम के द्वारा माता सीता का त्याग करने पर उन्हें अपने आश्रम में पुत्री के रूप में आश्रय दिया और बाद में प्रभु श्रीराम के दोनों पुत्रों लव-कुश को भी शस्त्र विद्या में पारंगत किया।

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