ऐसा ख़ामोश विधानसभा चुनाव और फिर ऐसी बंपर वोटिंग

चुनाव की ग्राउंड रिपोर्ट का तर्जुबा कहता है कि मध्यप्रदेश में ऐसा साइलेंट चुनाव पहले कभी नहीं देखा गया. बच्चों की जुबां पर चढ़ कर हवाओं की सैर करते नारे गायब थे. सड़कों पर उफनता सैलाब नदारद था. चौराहों पर चटखारें लेकर राजनीतिक दलों और नेताओं की हार-जीत तय करने वाला मजमा गायब था. बड़े से बड़े नेता रोड शो कर रहे थे, रैलियां कर रहे थे, भाषण दे रहे थे,लेकिन वहां था तो सिर्फ पार्टी वर्कर. जनता तो ख़ामोश तमाशबीन की तरह दूर से सब कुछ देख रही थी.
भीड़ खींचना आसान नहीं
प्रचार थमने के आख़िरी दिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इंदौर की सड़कों पर रोड-शो कर रहे थे. दिल्ली के पत्रकारों ने भाजपा के स्थानीय नेता से सवाल कर लिया कि क्या वजह है चुनाव में सड़कों पर वह सैलाब नहीं दिख रहा. तब उस नेता ने ऑफ द रेकॉर्ड कहा कि भीड़ को खींचना अब आसान नहीं रहा. शहरी इलाके ही नहीं झाबुआ जैसी आदिवासी इलाकों में भी यहीं नज़ारा देखने को मिला. जहां एक बड़े नेता की जनसभा में बहुत कम भीड़ के कारण कुछ देर के लिए पार्टी नेताओं के सामने समस्या खड़ी हो गई.
सड़कों पर भीड़ नहीं, बूथ पर वोटरों की कतार
वहीं वोटर जो वोटिंग से कुछ घंटे पहले सड़क पर उतरने के लिए तैयार नहीं है. वो मतदान के लिए इस कदर टूट पड़े कि मध्यप्रदेश के 61 साल के सारे रेकॉर्ड टूट जाते हैं. मध्यप्रदेश में हुआ 74.85 फीसदी का रिकॉर्ड मतदान कई चौंकाने वाले खुलासे करने वाला है. ये राजनीतिक दलों के लिए ही नहीं बल्कि उन चुनाव विश्लेषकों के लिए भी सबक है जो अब तक मानते रहे हैं कि किसी लहर या सत्ता विरोधी लहर में वोट प्रतिशत बढ़ता है.
लहर का फैसला भी रिजल्ट के साथ
इस चुनाव में सत्ता विरोधी लहर थी? इसका फैसला भी 11 दिसंबर को होगा. ऐसा पहली बार हुआ है जब मतदाता के दिल में क्या है इसकी थाह कोई राजनीतिक दल नहीं लगा पाया है. एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि देश में जब इमरजेंसी लगी थी उसके बाद भी वोटर खुलकर सड़कों पर निकल कर अपनी राय ज़ाहिर कर रहा था. कस्बों में चौराहे से लेकर पान की गुमटियों तक घूमकर पता चल जाता था कि कांग्रेस गई. लेकिन इस बार नज़ारा ठीक उलट है. वोट देने के बाद भी जो आम वोटर है अपनी चुप्पी नहीं तोड़ रहा है.
चुनावी आंकड़ों से थाह
राजनीतिक विश्लेषक चुनावी आंकड़ों से अब इस बात की थाह लगा रहे हैं कि मध्यप्रदेश में सत्ता किसके पास जा सकती है. इलेक्शन कमीशन ने जो अंतिम आंकड़े ज़ाहिर किए हैं, वे बता रहे हैं कि मध्यप्रदेश के 2018 के इस चुनाव के निर्णायक दो लोग होंगे. एक तो महिलाएं जिनका वोट 3.75 फीसदी बढ़ा है. दूसरा ग्रामीण इलाका जहां 80 फीसदी तक वोटिंग हुई है.
मोदी लहर में दो फीसदी
मध्यप्रदेश में मोदी लहर में 2 फीसदी वोटिंग बढ़ी थी. इस बार लहर के बिना आंकड़ा 2.82 फीसदी ज़्यादा है. औसत से 9 फीसदी ज्यादा. मध्यप्रदेश का चुनावी इतिहास बताता है कि जब भी वोट प्रतिशत बढ़ा है यहां सरकार बदली है. 1990 में पटवा सरकार बनी तब साढ़े चार फीसदी वोट बढ़ा. 1993 में दिग्विजय सिंह की सरकार बनीं तब 6 फीसदी से ज्यादा का इज़ाफा हुआ. उमा भारती की सरकार में ये आंकड़ा 7 फीसदी रहा. उस नज़रिए से देखा जाए तो इस बार का 2.82 फीसदी वोट बढ़ना कोई खास उल्लेखनीय नहीं है. लेकिन 75 फीसदी वोटिंग के साथ इसका बढ़ना खास मायने रखता है.