कई रहस्य छिपे हैं हजारों साल पुराने इस प्राचीन मंदिर में, जानें विशेषता
सुलतानपुर
सुलतानपुर जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलोमीटर पूरब लखनऊ बलिया राजमार्ग पर सूरापुर कस्बे के पुरानी बाजार में स्थित भवानीपुर महादेव पंचमुखी शिवाला है। अतिप्राचीन गुप्त कालीन वीर शैव तन्त्र साधना सिद्ध पीठ लगभग हजारों वर्ष पुराना पंचमुखेश्वर महादेव मंदिर अपने आप में बहुत तरह के रहस्य छिपाएं हुए है।
मंदिर के संदर्भ में हरिश्चंद्र घाट काशी के अवधूत उग्र चण्डेश्वर कपाली महाराज बताते हैं कि बौद्ध व जैन दोनों वास्तु कला का समावेश करते हुए यह मंदिर बना है। मंदिर को देखने से प्रतीत होता है कि कम से कम तीन चार सौ वर्ष पहले एक बार मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ है
यह मंदिर पांच के अंक पर आधारित है। जबकि हिंदू मंदिरों का पूर्णांक एक या नव के अंक पर होता है। मंदिर की बाहरी दीवारों की वृत्तियों पर बौद्ध वास्तु व बौद्ध तंत्र संबंधित शैली से मिलता जुलता है। जैन मंदिरों के शिखर में साधना गुहा बौद्ध बिहारों की शैली से मिलता जुलता है। जैन मंदिरों की तरह मेहराबे व खंबे जैन वास्तु कला का नमूना है। जो कि भीलवाड़ा के जैन मंदिरों में यह विशेषता आज भी देखने को मिलती है।
चतुष्कोणीय वेदी पर चतुर्वाहु मंदिर का निर्माण मध्य प्रदेश के कंदरिया मंदिर की याद दिलाता है। मंदिर में स्थापित मुख्य शिवलिंग महामण्डलेश्वर शिव की चतुर्व्यूह लिंग कुंडलिनी से अविशेष युक्त एवं परिपूरित चारों दिशाओं में उत्कृष्ट है। जो अपनी बनावट और भाव- भंगिमाओं से भगवान शिव के अघोर होने का प्रमाण है।
शब्देयोव, जात, वामदेव, ईसान चार मुखों का प्रतिनिधित्व और तत्पुरुष के रूप में मुख विहीन अर्ध मुख और अष्ट पहल का अर्घा इसके तांत्रिक सिद्धपीठ होने की दिशा में इंगित करता है।
मंदिर का शिविर तंत्र वीर शैव परम्परा के अनुसार साधना के अर्ध मुख क्रम प्रदर्शित करता हुआ प्रत्येक दिशा और प्रत्येक कोण से 11 के क्रम पर समाप्त होते हुए शिखरों की बनावट प्राचीन व अपरिवर्तित है। मंदिर गर्भ गृह तीन स्थलों में विभाजित है। अंतिम स्थल पर स्थितगुफा पर अवस्थित पार्षद प्रतिमाएं आठ दिशाओं में आठ वृत्तियों का संकेत करती हुई मंदिर के मध्य शिखर में स्थित है। इनमें यक्ष, यक्षिणी, कृतिमुख, कुबेर, वीरभद्र, नन्देश्वर,जय, विजय जो क्रमशः गुप्त कालीन का अद्भुत नमूना है।
मूर्तियां पूर्णता दिगंबर व फणिधर नागों से अविशेषरित है। गणपति की प्रतिमा को देखने से लगता है कि यह महोत्कट गणपति की प्रतिमा है। नाग का यज्ञोपवीत धारण किए हुए एक हाथ में फरसा बायें हाथ में पान पात्र दाहिने हाथ में खप्पर धारण किए हुए खंडित किंतु दुर्लभ आकृति जो नागों व मूषक के संयुक्त आसन पर बैठे हुए तांत्रिक प्रतिमा होने का प्रमाण है। इसके अलावा प्राचीन प्रतिमाओं में कानों में नागों का कुंडल धारण किए देवी प्रतिमा,भूमानारायण व सप्ताश्वाहन रुद्रादित्य (सूर्य देव) की दुर्लभ तांत्रिक विचित्र व दर्शनीय प्रतिमा है। लगभग 25 साल पहले मंदिर से सटे टीले पर प्राथमिक विद्यालय के निर्माण के लिए टीले की खुदाई हुई तो वहां से तमाम साधकों की अस्थियां मिली थी ।देवालय के ठीक ईशान कोण पर एक अति वट वृक्ष था जो कि हजारों साल पुराना रहा।मंदिर के पश्चिम में सरोवर स्थित है।
सुल्तानपुर के गजेटियर व अवध प्रांत के दस्तावेजों के अनुसार यह क्षेत्र नंद वंश गुप्त वंश और भौखरियों के आधीन रहा है।यह आदिकाल में भी राजभरों के अधीन रहा जो कि तत्कालीन कड़ामानिकपुर से बहराइच तक फैला हुआ था अमेठी राज्य की स्थापना के बाद सल्तनत काल में राजभर की सत्ता समाप्ति पर यहां के संतों ने भाले सुल्तान की पदवी प्राप्त की और वर्तमान सूरापुर अवध प्रांत दक्षिण से अयोध्या काशी व प्रयागराज की दूरी लगभग 120 किलोमीटर है तीनों तीर्थ स्थल के केंद्र में स्थित सूरापुर को संगम भी कहा जा सकता है श्री महाराज ने कहा कि आश्चर्य नहीं की इतिहास की बिखरी कड़ियों को जोड़ा जाए तो हमारे जनपद के गौरवशाली इतिहास में कुछ स्वर्णिम अध्याय जुड़ सकते हैं।