सद्भावना के प्रतीक...हज़रत इमाम हुसैन
डॉ सैयद उरूज अहमद क़ाज़ी
विश्व के इतिहास में ऐसी घटना शायद बिरले ही मिले कि जब एक क्रूर और अन्यायी शासक के विरुद्ध कोई व्यक्ति ने तन्हा अपने परिवार के लोगों के साथ जंग के मैदान में शहीद होने के लिए स्वयं चला आए।
हां,यह वही महान विभूति हैं जिन्हें दुनिया इमाम हुसैन के नाम से जानती है।जिन्होंने लोगों को मोहब्बत,सद्भाव और भाई-चारे का पैगाम देने के साथ.. सबको न्याय,सबको समान अवसर और समान अधिकार दिलाने वाली अपने नाना की शरीयत को बचाने के लिए वक्त की आतताई शक्ति से कभी हाथ ना मिलाया और अंत में मानवता की रक्षा के लिए उस यज़ीदी निज़ाम का विरोध करते हुए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया।
इतिहास साक्षी है सन 61 हिजरी में करबला की उस महत्वपूर्ण जंग का जिसमें दो सेनाएं नहीं लड़ीं किन्तु एक हथियार बंद विशाल सेना के विरूद्ध नवासए रसूल सल्ल .अपने नाना के लाए हुए ईश्वरीय कानून की हिफाजत के लिए , सत्य की सस्थापना के लिए , मानवता को अत्याचार और अराजकता से बचाने के लिए चट्टान सा जिगर लिए ललकार उठे । और तब तक मुकाबला करते रहे जब तक की अपने परिवार के बच्चे बच्चे को बलिदान न कर दिया । अन्त में त्याग और बलिदान के पैकर हजरत इमाम हुसैन रज़ि ने अपनी कुर्बानी पेश की लेकिन अन्याय करने वालों के सामने झुके नहीं । और विश्व इतिहास में अजेय और अमर हो गए । प्रसिद्ध शायर रामप्रकाश ' साहिर ' कहते हैं कि - " है हक व सदाकत मेरा मसलक साहिर
हिन्दी भी हूँ शब्बीर का शैदाई भी । " इमाम हुसैन त्याग , बलिदान और सेवा भाव के साथ सत्य , अहिंसा के पैरोकार थे । आपने इंसानियत की हिफाजत के लिए एक क्रूर अन्यायी शासक से समझौता नहीं किया । आपकी इस उसूल पसंदी और सत्य की स्थापना के लिए दी गई कुर्बानी ने विश्व समुदाय के महान दार्शनिक , विचारक , राजनीतिज्ञ और विभिन्न धर्मगुरुओं को खासा प्रभावित किया । हमारे राष्ट्रगान के रचियता गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगौर कहते हैं कि -
" इंसाफ़ और सच्चाई को जिंदा रखने के लिए फौजों या हथियारों की जरूरत नहीं होती है । कुर्बानियाँ देकर भी जीत हासिल की जा सकती है जैसे कि इमाम हुसैन ने कर्बला में किया"!
महान दार्शनिक और शिक्षाविद सर्व पल्ली राधाकृष्णन इमाम हुसैन से अपनी मुहब्बत का इजहार इन अल्फ़ाज़ में करते हैं कि -
" अगरचे इमाम हुसैन ने सदियों पहले अपनी शहादत दी लेकिन उनकी पाक रूह आज भी लोगों के दिलों पर राज करती है।
स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति और विद्वान डॉ . राजेन्द्र प्रसाद भी इमाम हुसैन की शहादत के क़ायल थे फर्माते हैं कि -" इमाम हुसैन की कुर्बानी किसी एक मुल्क या कौम तक सीमित नहीं है बल्कि यह लोगों में भाई - चारे का एक असीमित राज्य है"!
धर्मगुरु स्वामी शंकराचार्य का कथन है कि - " यह इमाम हुसैन की कुर्बानियों का नतीजा है कि आज इस्लाम का नाम बाकी है नहीं तो आज इस्लाम का नाम लेने वाला पूरी दुनिया में कोई नहीं होता ।
इस्लाम के प्रसार के संबंध में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी कहते हैं कि - " मैंने हुसैन से सीखा है कि मजलूमियत में कैसे जीत हासिल की जाती है । मेरा विश्वास है कि इस्लाम का विस्तार उसके अनुयाइयों की तलवार के जोर पर नहीं अपितु इमाम हुसैन के सर्वोच्च बलिदान की वजह से हुआ । " इसी प्रकार इमाम हुसैन के सत्य और अहिंसा के उसूलों का बखान करते हुए प्रसिद्ध अंग्रेजी दार्शनिक थामस कार्लाइल अपनी पुस्तक ' हीरोज़ एण्ड हीरोवरशिप में लिखते हैं कि - " कर्बला की दर्दनाक घटना से हमें ये शिक्षा मिलती है कि इमाम हुसैन और उनके साथियों को ईश्वर पर पूर्ण विश्वास था । आपने अपने अमल से इसे साबित कर दिया कि सत्य और असत्य के संघर्ष में संख्या बल कोई मायने नहीं रखता,सत्य और न्याय के लिए अकेले डटे रहना ही श्रेयस्कर है । " मशहूर शायर जोश मलिहाबादी ' के इस शेर ने हजरत इमाम हुसैन की लोकप्रियता को प्रस्तुत किया है कि,
इंसान को बेदार तो हो लेने दो
हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन ।
इसी भावना से ओतप्रोत भारत कोकिला सरोजिनी नायडू के विचार भी सम्माननीय हैं – “ मैं मुसलमानों को इसलिये मुबारकबाद पेश करना चाहती हूँ कि यह उनकी खुशकिस्मती है कि उनके बीच दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती इमाम हुसैन पैदा हुए जो सम्पूर्ण रूप से दुनिया भर के तमाम जाति और समुदाय के लोगों के दिलों पर राज करते हैं ।
दबे कुचले लोगों और मजलूमों की आवाज बने हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध कहानीकार मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं कि - " कर्बला की त्रासदी विश्व के इतिहास की पहली आवाज़ है और शायद आख़री भी हो जो मज़लूमों और पीड़ितों की हिमायत में बुलंद हुई और आज तक फिजाओं में गूंज रही है । अंततः निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि यज़ीद की विशाल सेना के विरूद्ध सत्य का झण्डा बुलंद करने वाले इमाम हुसैन ये जानते हुए कि वे इस लड़ाई में हार जाएंगे, लेकिन कभी - कभी लड़ाई चुनी ही नहीं जाती और हर लड़ाई जीतने के लिए भी नहीं लड़ी जाती , केवल दुनिया को ये संदेश दिया जा सके कि कोई था जो ज़ुल्म और बर्बरता के खिलाफ मैदान में खड़ा था ।
बेशक इमाम हुसैन आज भी जिंदा हैं , लेकिन यज़ीदियत के अस्तित्व को भी नकारा नहीं जा सकता जो ज़ुल्म और बर्बरता की परिचायक मानसिकता बन गई है । विश्व में जहाँ जहाँ भी अन्याय , आतंक , जुल्म , अत्याचार , हिंसा और अपराध व्याप्त है वहाँ आज भी इमाम हुसैन के कातिल और यज़ीदियत के अलम बरदार इब्नेज़ियाद और शिमर जिंदा हैं । लिहाजा हर दौर में सत्य और अहिंसावादी इमाम हुसैन की प्रासंगिकता साबित होती है । मुहर्रम हुसैन के मातम करने का नहीं अपितु उनके " सर्वोच्च बलिदान ' से प्रेरणा लेकर मानवता के लिए समानता , अमन , शांति , न्याय और अधिकार के लिए उठ खड़े होने का संकल्प लेने का आह्वान करता है ।
लेखक भारतीय सेना में धर्म शिक्षक रहे है