25 साल बाद बदला गया नक्सल खेमे का महासचिव, बसवराजू के हाथों होगी कमान
जगदलपुर
प्रदेश के वनांचल क्षेत्र बस्तर से एक बड़ी खबर सामने आई है। खबर है कि नक्सलियों ने 25 साल बाद अपने महासचिव का बदलाव किया है। दरअसल भाकपा माओवादी के महासचिव गणपति ने खुद जिम्मेदारियों से हटने का फैसला करते हुए बसवराजू को नया महासचिव बनाने का प्रस्ताव रखा था, जिसे केंद्रीय कमेटी ने स्वीकार कर लिया है। वैसे तो लंबे समय से ये कयास लगाए जा रहे थे कि बसवराजू के महासचिव बनाया जा सकता है। अब केंद्रीय कमेटी के प्रवक्ता अभय ने प्रेस नोट जारी कर इस बात की सूचना दी है। यह फ़ैसला सीपीआई माओवादी की केंद्रीय कमेटी की पांचवीं बैठक में लिया गया।
बताया जा रहा है कि छत्तीसगढ़ में लगातार मिल रही असफलता के चलते नक्सली खेमे में यह फैसला लिया गया है। बता दें बीते दिनों आॅपरेशन प्रहार—4 में जवानों ने नक्सलियों के मांद में घूसकर 9 नक्सलियों को ढेर कर दिया था। नक्सलियों के इस 130 किलोमीटर के कॉरिडोर में आज तक आॅपरेशन के लिए गए जवान लौटकर नहीं आ पाए थे। पहली बार ऐसा हुआ कि जवानों ने 9 नक्सलियों को ढेर कर दिया। इस घटना के बाद से नक्सल खेमे में खलबली मची हुई है।
बसवराजू आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम ज़िले के जियन्नापेटा गांव का रहने वाला है। बसवराजू 27 सालों से नक्सली संगठन की केंद्रीय कमेटी के सदस्य है। नक्सल संगठन के प्रवक्ता के अनुसार बसवराजू ने 18 सालों से पोलित ब्यूरो सदस्य के तौर पर सक्रिय थे।
वारंगल से इंजीनियरिंग में स्नातक बसवराजू को 1980 में एक बार छात्र संगठनों के झगड़े में गिरफ़्तार किया गया था। इसके बाद से बसवराजू की पुलिस के पास कोई नई फोटो नहीं है। बसवराजू के खिलाफ छत्तीसगढ़ सहित कई अन्य राज्यों में 1.57 करोड़ रुपए का इनाम है।
गणपति जिसे आज देश के सबसे बड़े नक्सल लीडर के रूप में जाना जाता है। इसका असली नाम मुप्पला लक्ष्मण राव है। इसका जन्म 16 जून, 1949 में बीरपुर नामक गांव में हुआ था, जो अभी तेलंगाना का हिस्सा है। गणपति एक स्वर्ण से ताल्लुक रखता है। गणपति के पिता एक किसान थे और गांव के जमींदार भी थे। करीगमनगर के एसआरआर कॉलेज से 1970 में बीएससी ग्रेजुएट गणपति ने जिले के एक स्कूल में तीन साल तक पढ़ाने का काम किया। करीगमनर में सशस्त्र संघर्ष का इतिहास रहा है। यहीं से 1945 में सीपीआइ का सशस्त्र संघर्ष शुरू हुआ था और जो 1951 में समाप्त हुआ।
गणपति के चचेरे भाई, 75 वर्षीय राजेश्वर राव इसी गांव में रहते हैं और ठेकेदारी करते हैं। सड़क किनारे बैठे गरमी और उमस में तौलिए से पंखा झलते हुए वे बताते हैं, “वह शर्मीला और संकोची था। शराब आदि कोई बुराई उसमें नहीं थी। तीनों भाई कम्युनिस्ट थे और हमेशा विप्लव साहित्यम (क्रांतिकारी साहित्य) में डूबा रहता था”
करीमनगर में नक्सली की नींव एक माक्र्सवादी छात्र संगठन रेडिकल स्टुडेंट्स यूनियन (आरएसयू) से पड़ी, जिसके जरिए सारे माओवादी नेता मिलते थे। तेलंगाना से स्नातक किए गणपति और अन्य छात्र नेता भी धीरे-धीरे आरएसयू की ओर खिंचते चले गए। देश में जब इमरजेंसी लगी थी, तो 1977 में हिंसा और लूट के मामले में गणपति को गिरफ्तार किया गया था। उसकी जमानत हुई और 1979 में वह भूमिगत हो गया और अगले ही साल अपने कुछ दूसरे साथियों के साथ कोंडापल्ली सीतारामैया के नेतृत्व वाले धड़े पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) में शामिल हो गया।
ये नेता जैसे-जैसे संगठन के भीतर ऊंचे पायदानों पर पहुंचते गए, उन्होंने अपना उपनाम रख लिया और अपने घर-परिवार, बीवी-बच्चे और पुरानी यादों को पीछे छोड़ दिया। गणपति ने 2007 में छत्तीसगढ़ के रानीबोदली में एक पुलिस कैंप पर हमले का नेतृत्व किया था, जिसमें 55 पुलिसवाले मारे गए थे। गंगाधर बताते हैं, “उन्होंने (तिरुपति) मुझसे कहा था कि उनका कोई परिवार नहीं है। अब तो आंदोलन ही उनका परिवार है।”
पहली बार गणपति के बीरपुर गांव में ही नक्सलियों ने अपने सबसे विनाशक हथियार यानी बारूदी सुरंगों का प्रयोग किया था। 1989 में पीडब्ल्यूजी ने एक जीप को यह सोच कर बारूदी सुरंग से उड़ा दिया था कि वह पुलिस की है। उस धमाके में जीप के चीथड़े उड़ गए और उसमें सवार 17 लोगों के शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े पेड़ों पर जा लटके। पता चला कि वह बारात थी और उसमें गणपति के संयुक्त परिवार के सदस्य भी शामिल थे। नक्सलियों ने इस घटना पर तुरंत माफीनामा जारी कर दिया, लेकिन राज्यसत्ता के खिलाफ उनकी जंग जारी रही। गणपति ने 1992 में अपने संरक्षक सीतारमैया की जगह लेते हुए पीडब्ल्यूजी की कमान अपने हाथ में ले ली और अधिकतर जमींदारों को तेलंगाना के गांवों से बाहर खदेड़ दिया।
गुदम गांव के कपास किसान, 36 वर्षीय सांदे रवि कहते हैं, ‘‘नक्सल ने डोरा काल (डोरा का राज) को खत्म कर दिया। हम उन्हें भगवान मानते हैं।” ऐसा कहते हुए वे एक तस्वीर की ओर उंगली से इशारा करते हैं जो उनके भाई सांदे राजमौलि की है। उसके हाथ में एके-47 है जिसे माओवादियों के बीच ऊंचे ओहदे की पहचान माना जाता है। 43 वर्षीय राजमौलि उर्फ कॉमरेड प्रसाद माओवादियों की सेंट्रल कमेटी में सबसे कम उम्र का नेता था। 2007 में एक मुठभेड़ में पुलिस ने उसे मार गिराया।
बीरपुर में गणपति का चार कमरों वाला बिना छत का घर आज खंडहर हो चुका है। चारों ओर उस पर झाड़ उग आई है। उसका परिवार बहुत पहले इस मकान को छोड़कर हैदराबाद में गुमनाम जिंदगी बिता रहा है। पास ही में एक मोबाइल फोन का टावर खड़ा है और खेतों में हरे-पीले जॉन डियर के ट्रैक्टर से तेलुगु फिल्मी गानों की तेज आवाज आ रही है।