भारतीय सेना के लिए ठीक नहीं 'अग्निपथ' से गोरखा की नाराजगी
ब्रह्मदीप अलुने
बीरगंज नेपाल का एक दक्षिणी सीमावर्ती शहर है जिसकी सीमा बिहार में पूर्वी चंपारण के रक्सौल शहर से लगती है। नेपाल में सड़क मार्ग से प्रवेश करने का यह एक प्रमुख रास्ता है। रक्सौल से बीरगंज की दूरी मात्र 11 किलोमीटर है। रक्सौल के बाज़ार में 90 फीसदी नेपाली लोग होते है जो यहां खरीदी करने रोज आते है। मान लीजिये बीरगंज में रहने वाले गोरखा युवक भारतीय सेना में आने के स्थान पर चीन या पाकिस्तान की सेना में शामिल होने लगे और यह बड़ी संख्या में हो तो क्या रक्सौल के बाज़ार में नेपालियों को इसी प्रकार आने दिया जायेगा। इस समय यह सवाल इसलिए उठ खड़ा हुआ है क्योंकि अग्निपथ भर्ती योजना से नाराज नेपाल के गोरखा अब पाकिस्तान या चीन की सेना में शामिल होने की बात कह रहे है। उनका कहना है कि अग्निपथ भर्ती योजना उनके पूरे जीवन की नौकरी की गारंटी नहीं देता है, ऐसे में जहां से उन्हें बेहतर प्रस्ताव मिलेगा, वे जाएंगे और मौका मिला तो भारत के खिलाफ लड़ेंगे भी।
नेपाल की देउबा सरकार ने भर्ती की कोई अनुमति नहीं दी
दरअसल नेपाल में भारतीय सेना में शामिल अग्निपथ भर्ती योजना का व्यापक विरोध हो रहा है, इसे देखते हुए वहां की देउबा सरकार ने भर्ती की कोई अनुमति नहीं दी है। काठमांडू में भारतीय दूतावास के बाहर अच्छी खबर, अग्निपथ भर्ती योजना के शीर्षक से एक पोस्टर लगा हुआ है जिसमें यह जानकारी साझा की गई है कि भारत सरकार ने भारतीय सशस्त्र बलों के लिए नई अग्निपथ भर्ती योजना की शुरुआत को स्वीकृति प्रदान कर दी है। युवाओं के लिए भारतीय सशस्त्र बलों में सेवा करने और इसके साथ ही आकर्षक आर्थिक पैकेज का फ़ायदा उठाने का सुनहरा मौक़ा है। पोस्टर में इस बात पर जोर दिया गया है कि इस योजना में नेपाल में रह रहे आकांक्षी युवाओं के हितों का ख़याल रखा गया है। अंत में यह लिखा गया है कि योजना के कार्यान्वयन और नेपाल में भर्ती रैलियां शुरू करने के बारे में अगली जानकारी बहुत ही जल्द दी जाएगी। बुटवल में 25 अगस्त से सात सितंबर तक नेपाली गोरखाओं के लिए भर्ती रैली और धरान में 19 से 28 सितंबर तक होनी थी। भारत ने नेपाल की सरकार से इन तारीख़ों पर अनुमति मांगी थी, लेकिन नेपाल सरकार ने समय रहते जवाब नहीं दिया है। ऐसे में भर्ती रैली न हो पाने की आशंका है। भारत और नेपाल के सैन्य इतिहास की दुखद परिस्थिति बनती हुई दिखाई दे रही है।
गोरखा रेजिमेंट के बलिदान को सदैव याद किया जाता है
भारतीय सेना में नेपाली गोरखाओं का स्थान इतना उच्च है कि पाकिस्तान और चीन से लड़ाई में गोरखा रेजिमेंट के बलिदान को सदैव याद किया जाता है। भारतीय आर्मी के भूतपूर्व चीफ ऑफ स्टाफ जनरल सैम मानेकशा ने एक बार प्रख्यात रूप से कहा था यदि कोई कहता है कि मुझे मौत से डर नहीं लगता, वह या तो झूठ बोल रहा है या गोरखा है। गोरखा रेजिमेंट को युद्धों में अनेक पदको़ व सम्मानों से अलंकृत किया गया, जिनमें महावीर चक्र और परमवीर चक्र भी शामिल हैं।
हर साल भारतीय सेना में भर्ती होते हैं लगभग 1500 गोरखा
वर्तमान में हर वर्ष लगभग बारह सौ से तेरह सौ नेपाली गोरखे भारतीय सेना में शामिल होते है। गोरखा राइफल्स में लगभग 80 हजार नेपाली गोरखा सैनिक हैं, जो कुल संख्या का लगभग 70 प्रतिशत है। इसके अतिरिक्त रिटायर्ड गोरखा जवानों और असम राइफल्स में गोरखों की संख्या करीब एक लाख है। भारतीय सेना से रिटायर्ड नेपाली गोरखाओं की तादाद तकरीबन एक लाख पैतीस हजार है। इनकी सैलरी और पेंशन मिला दें तो यह रक़म 62 करोड़ डॉलर है। यह नेपाल की जीडीपी का तीन फ़ीसदी है। दूसरी तरफ़ नेपाल का रक्षा बजट महज़ 43 करोड़ डॉलर है। यानी नेपाल के रक्षा बजट से ज़्यादा भारत से नेपाली गोरखाओं को हर साल सैलरी और पेंशन मिल रही है। ऐसे में अग्निपथ न केवल भारतीय फौज की ताकत को बल्कि नेपाल की अर्थव्यवस्था को काफी हद तक प्रभावित कर सकती है।
गोरखा रेजिमेंट से चीन भी डरता है
भारतीय सेना की इन्फ़ेंट्री में सिख, गढ़वाल, कुमाऊं, जाट, महार, गोरखा, राजपूत समेत 31 रेजिमेंट हैं। गोरखा रेजिमेंट से चीन भी डरता है क्योंकि भारत चीन तनाव में गोरखा चीन को भौगोलिक रूप से ज्यादा चुनौती देते है। पहाड़ी और पर्वती इलाकों में गोरखा रेजिमेंट भारतीय सेना की ताकत में इजाफा करती है। खासतौर पर गोरखा सैनिकों का शौर्य, समर्पण और लड़ने का जज्बा कमाल का होता है और उसका कोई मुकाबला नही हो सकता। पिछले कुछ सालों में चीन ने यह जानने में दिलचस्पी दिखाई है कि आखिर नेपाली गोरखा भारतीय सेना में जाना क्यों पसंद करते है। अब अग्निपथ योजना के कारण नेपाली गोरखाओं के चीन की ओर आकर्षित होने का संकट गहरा सकता है।
चीन उठा सकता है नाराजगी का फायदा
भारत और नेपाल के बीच क़रीब अठारह सौ किलोमीटर लम्बी सीमा है जो बिहार, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और पश्चिम बंगाल राज्यों से भी लगती हैं। भारत और नेपाल के बीच सदियों पुराने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध हैं। दोनों देशों के बीच की वो अनूठी व्यवस्था मशहूर है जो अपने नागरिकों को बिना वीज़ा के दूसरे देश की यात्रा करने की अनुमति देती है। भारत में क़रीब अस्सी लाख नेपाली नागरिक भारत में रहते हैं और काम करते हैं,वहीं क़रीब छह लाख भारतीय नेपाल में रहते हैं। जब से भारत ने अग्निपथ योजना की घोषणा की है तब से लोग बहुत निराश हैं। यदि यही हाल रहा तो अब शायद ही कोई नेपाली गोरखा भारतीय सेना में जाना चाहेगा। गोरखा भारतीय सेना में भर्ती को लेकर कड़ी मेहनत करते है क्योंकि उनकी दृष्टि में यह रोजगार और बेहतर भविष्य की गारंटी है लेकिन अग्निपथ योजना को वे अपने सपनों पर पानी फेरने जैसा बता रहे है। चीन इस मौके का फायदा उठाकर नेपाली गोरखाओं को अपनी फौज में भर्ती करने की कोशिश कर सकता है।
नेपाल सरकार की आशंका, नौकरी के बाद हो सकता है दुरुपयोग
नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल मुखर होकर अग्निपथ योजना का विरोध कर रही है। वहीं नेपाल की वर्तमान सरकार समझती है कि चार साल बाद सेना की ट्रेनिंग लेने के बाद युवा वापस नेपाल लौटेंगे तो उनका दुरुपयोग किया जा सकता है। उनका कहना है कि नेपाल के अतिवादी गुट इन युवाओं की ट्रेनिंग का दुरुपयोग कर सकते हैं। नेपाल में माओवाद के खतरें को देखते हुए उनका दावा बेबुनियाद नहीं लगता। इस साल जून में एक प्रेस कांफ्रेंस में लेफ़्टिनेंट जनरल अनिल पुरी ने कहा था कि कि सेना में जवानों की भर्ती की नई अग्निपथ योजना एक प्रगतिशील क़दम है और देश की रक्षा के लिए ऐसा करना बेहद ज़रूरी है।
नेपाल की भारत विरोधी ताकतें प्रश्रय दे सकती है
भारत के युवा सरकार की किसी भी शर्त को मान सकते है, यह बात नेपाल के गोरखाओं पर लागू नहीं होती। गोरखा सेना और युद्द को लेकर बेहद पेशेवर अंदाज रखते है। यदि वे चीन या पाकिस्तान की सेना में चले जाते है तो फिर भारत की नेपाल से लगी हुई सीमा असुरक्षित होगी बल्कि भारत के लिए यह बड़ा सामरिक झटका भी हो सकता है। अग्निपथ भर्ती योजना को लेकर गोरखा युवाओं की नाराजगी को नेपाल की भारत विरोधी ताकतें प्रश्रय दे सकती है। कालापानी को लेकर नेपाल और भारत के संबंध खराब दौर में पहुंच गए है और अब दोनों देशों के बीच अविश्वास को बढ़ने से किसी हाल में रोका जाना चाहिए।