बराबरी पर यूं ही नहीं रुका एसपी-बीएसपी का कांटा
लखनऊ
सियासत में सहयोगी से लेकर विरोधी तक पर हावी रखने के बीएसपी प्रमुख मायावती के अंदाज को देखते हुए गठबंधन की तस्वीर भी कुछ ऐसी ही होने के कयास थे। लेकिन मायावती ने कांटा 38-38 के बराबरी पर टिका दिया। एक-दूसरे को बराबर रखने की यह दरियादिली दरअसल इसलिए जरूरी हो गई ताकि एसपी के वोटरों में कहीं भी 'पिछलग्गू' होने का भ्रम न फैले। सीधी लड़ाई में वोटों का गणित ठीक रहने के लिए यह संदेश बहुत जरूरी था।
गठबंधन को हर हाल में हकीकत में बदलने के लिए एसपी मुखिया अखिलेश यादव किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार थे। खुद शनिवार को भी प्रेस कॉन्फ्रेंस में अखिलेश ने कहा कि हम दो कदम पीछे हटने को भी तैयार थे लेकिन मायावती ने हमें बराबरी का सम्मान दिया इसके लिए धन्यवाद। जानकारों का कहना है गठबंधन पर अखिलेश के नरम रुख और मायावती की तल्ख टिप्पणियों के बीच एसपी के कोर वोटरों पर एक भ्रम की स्थिति बन सकती थी।
पार्टी नेताओं के साथ ही समर्थकों के बीच यह स्वाभाविक सवाल पैदा होता कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव में एसपी का प्रदर्शन बीएसपी से काफी बेहतर होने के बाद भी हमारा दर्जा 'दूसरा' क्यों? इस सवाल को बीजेपी भी एसपी के वोटरों और खासकर यादवों में हवा देती। गठबंधन के रणनीतिकारों ने इस संभावित संकट को भांपते हुए इसकी गुंजाइश खत्म कर दी कि वोटरों में किस तरह का रोष पनपे।
यूपी में पिछले दो दशक से भी अधिक समय में जब यह दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे के खिलाफ लड़ रही थीं तो इनके वोटर भी एक-दूसरे से जूझ रहे थे। दोनों के सरकार बनने के दौरान कार्यकर्ताओं को खुश करने के लिए एक-दूसरे के कार्यकर्ताओं को भी अलग- अलग तरह से 'कसा' गया। इसलिए यह जरूरी था कि जब नेता एक हो रहे हैं तो उनके कोर वोटर व समर्थक भी सहज हों।
बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने शुक्रवार गठबंधन पर कुछ ऐसा ही तंज किया था 'राजनीति फिजिक्स नहीं केमेस्ट्री होती है। दो पदार्थ अगर सही नहीं मिले तो समस्या हो जाती है।' इसलिए गठबंधन के ऐलान के दौरान मायावती और अखिलेश इस 'केमेस्ट्री' को सहज बनाने को लेकर सजग दिखे। सीबीआई जांच में अखिलेश का नाम आने को साजिश बता उनके साथ पूरी तरह खड़ा होने का मायावती का वादा इसी का हिस्सा था। जिससे वोटर को यह संदेश जा सके कि हम सुख ही नहीं दु:ख में भी साथ खड़े होंगे।
वहीं, अखिलेश यादव ने भी मायावती के अपमान को अपना अपमान बता कर नीचे तक यह संदेश दिया कि एक दूसरे के खिलाफ बोलने और तोड़ने का नहीं अब जुड़ने और जोड़ने का वक्त है। अखिलेश जानते हैं कि मायावती ने भले ही एक बहुत बड़ी घटना भुला दी लेकिन उनको और उनके वोटरों को नाराज करने के लिए कोई छोटी बात भी पर्याप्त हो सकती है। इसलिए उनकी नसीहत अपने पार्टी के उन नेताओं के लिए खास तौर पर थी जिनकी जुबां अक्सर फिसल जाती है और जो अब तक मायावती को लेकर व्यक्तिगत टिप्पणियों से भी नहीं हिचकते थे।
यूपी में पहले किए गठबंधनों को लेकर मायावती की सबसे अधिक शिकायत वोट ट्रांसफर को लेकर रहती थी। शनिवार को प्रेस कान्फ्रेंस में भी उनका यह दर्द छलका। हालांकि, अगर एसपी-बएसपी गठबंधन में मायावती दोनों ही पार्टियों के वोट एक-दूसरे को ट्रांसफर होने को लेकर आश्वस्त दिखीं थी तो वह बेवजह नहीं है।
1993 की राम लहर में जब बीजेपी का प्रचंड माहौल था तब एसपी-बएसपी उभरते दल थे। बावजूद इसके दोनों पार्टियों ने मंडल से कमंडल की लहर थाम दी थी। इस बार भी उम्मीद की वजह पार्टियों के वोट बैंक की प्रवृत्ति है।बीएसपी का कोर वोट दलित है जो आज भी मायावती के प्रति समर्पित है। उनके ऐलान पर बहुतायत वोट ट्रांसफर हो जाता है। एसपी के कोर वोटर यादव- मुस्लिम हैं।
बीजेपी हराओ की मुहिम में जो भी बीजेपी के खिलाफ मजबूत दिखा रहा हो उसके साथ मुस्लिम वोटरों का जाना तय माना जाता है। दलित और मुस्लिम वे वोटर हैं जो कमोवेश प्रदेश की हर लोकसभा सीट पर थोड़ा-बहुत दखल रखते हैं। सियासी जानकारों में यादव वोटरों को लेकर थोड़ा संशय जरूर है लेकिन उनका दखल पूरे प्रदेश में नहीं है। यादव बेल्ट में अधिकांश सीटों पर एसपी की ही दावेदारी होनी है। इसलिए यहां उनका वोट मिलने में कोई खास परेशानी नहीं होगी।