जानिए कहां ली थी भगवान शिव ने 60 हजार वर्षों की समाधि, और क्यों?
ऋषिकेश। भगवान भोलेनाथ ने विश्व कल्याण के लिए समुद्र मंथन के बाद निकले विष को कंठ में धारण किया। विष पीने के बाद भोलेनाथ ने समाधिस्थ होकर 60 हजार साल तक तपस्या की। भगवान भोलेनाथ की तपस्थली रही यमकेश्वर घाटी का नीलकंठ मंदिर करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है।
समुद्र मंथन के बाद कालकूट विष को कंठ में धारण किया
पौराणिक मान्यता है कि जब भगवान शिव ने समुद्र मंथन के बाद कालकूट विष को कंठ में धारण किया तो वे नीलकंठ कहलाए। उन्हीं के नाम से इस तीर्थस्थल का नाम नीलकंठ तीर्थ पड़ा। कहा जाता है कि भगवान शिव ने इस स्थान पर 60 हजार वर्षों तक समाधि ली थी ताकि विष के प्रभाव को कम किया जा सके।
समाधिस्थल पर नीलकंठ के स्वरूप में स्वयंभू-लिंग के रूप में प्रकट हुए
समाधि के उपरान्त जगद्धात्री मां सती की प्रार्थना पर प्रसन्न होकर जगत का कल्याण करने के लिये भगवान महादेव जिस वटवृक्ष के मूल में समाधिस्थ हुए थे उसी स्थान पर नीलकंठ के स्वरूप में स्वयंभू-लिंग के रूप में प्रकट हुए। इस लिंग का सर्वप्रथम पूजन मां सती ने की थी। आज यही स्थान नीलकंठ महादेव के नाम से प्रसिद्ध है और आज भी मन्दिर में स्थित शिवलिंग पर नीला निशान दिखाई देता है।