rajesh dwivedi
सतना। ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ का राग गाकर चुनावी रण में उतरी भाजपा हो अथवा अनुशासन का दम भरने वाली कांग्रेस या बसपा , तीनों ही दलों ने अपने अपने प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में तो उतार दिया है लेकिन चुनावी रणभूमि में इन दलों के प्रत्याशी तो चुनावी जंग लड़ते नजर आ रहे हैं लेकिन इन दलों के वे मूल कार्यकर्ता नदारद नजर आ रहे हैं जो पार्टी व पार्टी प्रत्याशी के पक्ष में जनमत निर्माण करने में अहम भूमिका निभाते हैं। जमीनी कार्यकर्ताओं के मैदान में अब तक न उतरने से मैदानी स्तर पर पार्टी प्रत्याशियों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

भाजपा का जंबो संगठन मैदान पर नहीं यदि संगठनात्मक ढांचा देख जाय तो अभी भी भाजपा कांग्रेस व बसपा से अधिक मजबूत नजर आती है। भाजपा का जंबो संगठन हैं जिसमें तकरीबन 5 हजार से अधिक पदाधिकारी व सदस्य हैं। यदि भाजपा के संवैधानिक संगठनात्मक ढांचे पर नजर दौड़ाएं तो जिला कार्यकारिणी में 1अध्यक्ष , 8 उपाध्यक्ष, 8 मंत्री, 3 महामंत्री , 1 महामंत्री संगठन व 1 कोषाध्यक्ष होता है। इन 22 पदाधिकारियों में 7 महिला पदाधिकारी व 4 एससीएसटी वर्ग के पदाधिकारी समेत 91 सदस्य व 20 फीसदी स्थाई और विशेष आमंत्रित सदस्य होते हैं। इस प्रकार से भाजपा की केवल जिलाकार्यकारिणी में लगभग 119 सदस्य होते हैं। जिला कार्यकारिणी के बाद मंडल स्तर पर पदाधिकारी व सदस्य हैं। एक मंडल में 61 पदाधिकारी व सदस्य होते हैं जिनमें 1 अध्यक्ष, 6 उपाध्यक्ष , 6 मंत्री, 2 महामंत्री होते हैं। जिले में कुल 27 मंडल हैं जिससे अकेले मंडलों के पदाधिकारियों व सदस्यों की संख्या जिले में 1830 हो जाती है। चुनावों में इनके अलावा ग्राम व नगर केंद्र तथा भाजपा के विभिन्न मोर्चों व प्रकल्पों की अहम भूमिका होती है। भारतीय जनता युवा मोर्चा, , महिला मोर्चा, अनुसूजाति जनजाति मोर्चा , पिछड़ा वर्ग मोर्चा, किसान मोर्चा ,अल्पसंख्यक मोर्चा समेत भाजपा के विभिन्न 19 प्रकल्प की चुनावी भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण होती है। इसके अलावा संघ और संघ के अनुसांगिक संगठन किसान संघ, अभाविप, बजरंग दल, दुर्गावाहिनी भी भाजपा की जीत के शिल्पकार रहते हैं। यदि हम केवल इन संगठनों के पदाधिकारी व सदस्यों को देखें तो इनकी संख्या 5 हजार से अधिक होती है। माना जा रहा है कि यदि भाजपा के सभी सहयोगी संगठनों के पदाधिकारी व सक्रिय सदस्य मैदान में आ जाय तो तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद कांग्रेस व बसपा को भाजपा मुसीबत में डाल सकती है, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में उस दौरान की संगठन की वह टीम नदारद है जिसने इन संगठनों को चार्ज कर केवल सतना में ही नहीं बल्कि समूचे विंध्य में भाजपा को ऐतिहासिक विजय हासिल कराई थी।
कहां गई मेनन-अजय की जोड़ी
विंध्य में भाजपा को शीर्ष पर पहुचाने में तत्कालीन प्रदेश सह संगठन मंत्री महाकौशल प्रांत अरविंद मेनन व तत्कालीन संभागीय संगठन मंत्री अजय पांडे ने अहम भूमिका निभाई थी। याद कीजिए वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव जब भाजपा की कमान इन्हें मिली थी। दोनो ने मिलकर जिस प्रकार की चुनावी बिसात बिछाई उसका नतीजा भाजपा के लिए सुखद रहा और भाजपा ने विंध्य में उल्लेखनीय सफलता हासिल की। फिर आया वर्ष 2014 का चुनाव जिसमें संगठन ने पुन: दोनो केंद्रीय भूमिका में यहां भेजा। अजय पांडे ने तो चुनाव के दो माह पूर्व ही यहां डेरा डाल दिया था और तब तक अरविंद मेनन संगठन में प्रमोट होकर प्रदेश महामंत्री संगठन बना दिए गए थे। लगातार सत्ता में रहने के कारण प्रत्याशियों के विरूद्ध सत्ता विरोधी लहर भी थी। सतना में तो भाजपा प्रत्याशी का मुकाबला कांग्रेस के दिग्गज नेता अजय सिंह राहुल से था। मुकाबला कांटे का था लेकिन यहां पुन: अरविंद मेनन और अजय पांडे ने मिलकर बाजीगरी दिखाई और चुनाव के ऐन पूर्व कांग्रेस के विधायक नारायण त्रिपाठी, धर्मेश चतुर्वेदी, सुभाष शर्मा डोली , विजय तिवारी जैसे कई बड़े चेहरों को भाजपा में ला खड़ा किया था। खासकर नारायण को ऐने मौके पर शामिल करने की मेनन-अजय की रणनीति टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ और कांग्रेस की जीत पर गृहण लग गया। वर्ष 2014 में भाजपा ने रिकार्ड संभाग की सभी सीटों पर कब्जा जमाकर कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। लेकिन इस मर्तबा कार्यकर्ता और पदाधिकारी घरों से नहीं निकल रहे हैं और पार्टी को मुश्किल से उबारने वाले ये दोनो चेहरे भी नदारद हैं । जिससे अब पुन: उसी सफलता को दोहराना इतना आसान नहीं होगा। संगठन ने महापौर के चुनाव में भी अजय पांडे को यहां भेजा था जिनकी बेहतर रणनीति ने ममता पांडे को सतना मेंरिकार्ड मतों से जिताया था। सूत्रों की मानें तो अरविंद मेनन इन दिनों पश्चिम बंगाल के संगठन सह प्रभारी हैं जबकि अजय पांडे को संगठन यहां भेजने के बजाय बुंदेलखंड के चुनावी रण में भेजने जा रहा है।
कांग्रेस में भी संगठनात्मक सुस्ती
ऐसा नहीं है कि कार्यकर्ताओं की उदासीनता का दंश केवल भाजपा भोग रही है, कांग्रेस में भी संगठनात्मक सुस्ती देखी जा रही है। कांग्रेस प्रत्याशी राजाराम त्रिपाठी ने पूरे जोश के साथ चुनावी अभियान प्रारंभ कर दिया है लेकिन पार्टी पदाधिकारी व कार्यकर्ता अभी भी पूरी ताकत से नहीं निकल रहे हैं। कांग्रेस में भी संगठनात्मक ढांचा बड़ा है। जिला कांग्रेस कमेटी शहर व ग्रामीण में पदाधिकारियों व सदस्यों की भरमार है। कांग्रेस विधानसभा चुनाव के पूर्व तक अपने पुराने ढांचे पर ही काम कर रही थी लेकिन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने विस चुनाव के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर संगठन का चेहरा बदला था जिसके आशातीत परिणाम भी हासिल हुए थे। पहले जिला व ब्लाक स्तर तक सिमटी कांग्रेस को बूथ लेबल तक पहुंचाने के लिए जिला कमेटी, ब्लाक कमेटी के अलावा मंडलम व सेक्टर कमेटियों का गठन किया । सक्रिय कार्यकर्ताओं को सेक्टर कमेटी में चयनित करते हुए मंडलम को संगठन की एक महत्वपूर्ण कड़ी बनाया गया। हर विधानसभा में तीन ब्लाक संगठन बनाए गए और हर ब्लाक में तीन मंडल कमेटियां समाहित की गर्इं। एक मंडलम कमेटी का गठन तीन सेक्टर कमेटियों को मिलाकर किया गया। 10 बूथ कमेटियों का एक सेक्टर बनाया गया। इसतरह से एक मंडलम में कम से कम 30 बूथ कमेटियां बनाई पार्टी ने मंडलम कमेटी को सबसे मजबूत माना है, इस कारण सक्रिय कार्यकतार्ओं को इसमें अवसर दिया गया। इसके अलावा , कृषि, रोजगार, महिला सशक्तिकरण, समाज सेवा, जनसम्पर्क, प्रखर वक्ता, सूचना का अधिकार, रिसर्च, सामग्री लेखन, सोशल मीडिया, जमीनी कार्यकर्ता, आंदोलनों में सहभागिता, मजदूर नेता सहित अन्य विषय विशेषज्ञों को पार्टी से जोड़ने का अभियान भी चलाया गया जो इन दिनों केवल रस्मी ही नजर आ रहा है। न तो विस चुनाव के बाद मंडलम व सेक्टर की प्रभावी बैठकें हो रही हैं और न ही कांग्रेस के पक्ष में जनमत निर्माण करने पदाधिकारी व कार्यकर्ता निकल रहे हैं। भीषण गर्मी में पार्टी प्रत्याशी तो अपने समर्थकों के साथ वोट मागने निकल रहे हैं लेकिन पदाधिकारी व कार्यकर्ता अभी भी चुनावी तपन में तपने के लिए तैयार नहीं है। यदि संगठनात्मक स्तर पर यही रवैया रहा तो कांग्रेस की राह भी चुनावी जीत के लिहाज से कांटो भरी रहने का अनुमान है।
पशोपेश में बसपा का मूल कार्यकर्ता
कैडर बेस पार्टी मानी जाने वाली बहुजन समाज पार्टी के हालात भी संगठनात्मक स्तर पर ठीक नजर नहीं आ रहे हैं। बसपा के अच्छेलाल अपने चंद कार्यकर्ताओं के साथ तो चुनावी रण में नजर आ जाते हैं लेकिन उनके साथ ा तो बसपा का कैडर नजर आ रहा और न ही बेस कार्यकर्ता। दरअसल बसपा का मूल कार्यकर्ता पशोपेश में नजर आ रहा है। इसके लिए हांलाकि बसपा प्रत्याशी की एकला चलो की रणनीति को भी जिम्मेदार माना जा रहा है। बताया जाता है कि बसपा प्रत्याशी पार्टी कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों की तुलना में हाईटेक सोशल मीडिया पर भरोसा जता रहे हैं, जबकि हाईटेक संचार माध्यमों से अभी भी बसपा का 80 फीसदी कैडर वोटर दूर है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि मूल कार्यकर्ताओं के चुनाव प्रचार में घर से बाहन न निकलने पर पार्टी और प्रत्याशी चुनावी जीत का कौन सा राजनैतिक रसायन तैयार करती हैं।
भाजपा को मोदी मैजिक तो कांग्रेस को भितरघातियों का भरोसा लोकसभा चुनाव की बिछी बिसात में भाजपा और कांग्रेस प्रत्याशी दोनो अपना दम दिखा रहे हैं। जनता के बीच भाजपा जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क ी जनकल्याणकारी योजनाओं के साथ पहुंच रही है, वहीं कांग्रेस भाजपा के उन भितरघातियों के भरोसे हैं जो टिकट वितरण के बाद पार्टी के अलग-अलग फोरम में अपनी नाराजगी जता चुके हैं। कांग्रेस को रामलखन पटेल, डा. रश्मि सिंह, ऊषा चौधरी जैसे उन नवागंतुकों से भी बड़ी उम्मीदे हैं जो विभिन्न दलों से नाराज होकर कांग्रेस में आए हैं। यह सच है कि नए लोगों के आने से कांग्रेस की ताकत बढ़ी है मगर जब पुरानी ताकत को सहेजा गया हो। फिलहाल इस आपाधापी में पार्टी का मूल कार्यकर्ता उपेक्षित है जिसे जल्द ही विश्वास में लिए बिना कांग्रेस चुनावी वैतरणी पार नहीं लगा सकती । यदि भाजपा के पास केंद्र सरकार की योजनाएं गिनाने को है तो कांग्रेस के पास भी कमलनाथ द्वारा की गई कर्जमाफी व बेरोजगारी भत्ते जैसी योजनाएं है, लेकिन इन्हें आम मतदाता के बीच गिनाने वाला पार्टी कार्यकर्ता जब तक सक्रिय नहीं होगा तब तक न तो भाजपा और न ही कांग्रेस की आवाज मतदाताओं तक पहुंचेगी।