...जब रामलला को टेंट में देखकर रोने लगा शिसैनिक

...जब रामलला को टेंट में देखकर रोने लगा शिसैनिक
अयोध्या, मैं अयोध्या हूं। रामलला की जन्मभूमि। यही मेरा गौरव है। ...लेकिन इस दौर में यही मेरे दर्द की वजह भी है। मेरी पीड़ा समझने वाला कौन है? जिसने भी मेरी तरफ प्यार भरी नजरों से देखा, मुझे उससे आस बंध जाती है। उम्मीद हो जाती है कि मैं फिर संवर जाऊंगी। फिर मेरे दिन बहुरेंगे। अपना खोया गौरव मैं फिर से पा सकूंगी। ...लेकिन हर बार वादे के बाद मेरी उम्मीदें तोड़ दी जाती हैं। छोड़ दिया जाता है मुझे अपने हाल पर। अब तक कितनी बार मेरी उम्मीदों को तोड़ा गया, अब तो ठीक से याद भी नहीं पड़ता। हर साल छह दिसंबर के पहले मुझे झकझोरा जाता है। मेरी सीमाओं की घेराबंदी हो जाती है। लोग तरह-तरह के नारे लगाते हैं। मैं सहम जाती हूं। एक तरफ श्रीराम की जय जयकार होती है तो दूसरी तरफ मेरे अपने ही मातमपुरसी करते हैं। हैं तो दोनों ही मेरे अपने। कटरा के अशफाक कहते हैं कि हिंदुओं की जुटान से हमें डर लगता है। सरयू घाट के रहने वाले शिवपूजन कहते हैं कि रामलला की जन्मभूमि पर राममंदिर ही चाहिए। लेकिन इस बार छह दिसंबर के पहले ही दो दिन तक मुझे मथने की घोषणा हो गई। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के आने के पहले ही तमाम शिवसैनिकों ने यहां अपना डेरा डाल दिया। हर तरफ रामलला की जय-जयकार हो रही थी। मैं खुश थी। महाराष्ट्र से आया एक शिवसैनिक जब रामलला के दर्शन को पहुंचा और उन्हें टेंट में देखकर जब वह रोया, तो मेरी भी आंखें नम हो गईं। मैं भी बिलखी उसके साथ। उसका दुख मुझे अपना सा लगा। कारसेवक पुरम में जब शिवसैनिकों की टोली जय श्रीराम कहते हुए घुसी तो मैं फिर झूमने लगी उस जयकारे में। लेकिन जैसे ही वे यहां तराशे गए पत्थरों पर जमी काई देखकर मायूस हुए... मैं भी गुमसुम हो गई। पत्थरों का तराशा जाना जारी है। करीब तीन दशकों से जो पत्थर तराशे जा चुके... उनमें काई लगती जा रही। उद्धव ने जिस तरह से राम मंदिर की तारीख शनिवार को पूछी है, उससे मुझे कुछ उम्मीद हो रही है कि रविवार को जब संत जुटेंगे तो इसका जवाब तलाशेंगे। शायद वे मेरा कुछ खयाल करें। हां कहेंगे... न कहेंगे... क्या कहेंगे, लेकिन अगर स्पष्ट कहेंगे तो मेरे साथ छलावा नहीं होगा। वरना... रविवार भी उन तमाम दिनों की तरह एक दिन हो जाएगा।