मृत्‍यु के परम सत्‍य को भगवान भी न टाल सके, ऐसे त्‍यागना पड़ा शरीर

मृत्‍यु के परम सत्‍य को भगवान भी न टाल सके, ऐसे त्‍यागना पड़ा शरीर


मनुष्‍य चांद पर भले ही पहुंच जाए लेकिन मृत्‍यु के परम सत्‍य को टालना उसके बस की बात नहीं है। काल जब जिसका आया है वह उस वक्‍त यमराज उसे अपने साथ लेकर ही जाएंगे। दुनिया की कोई ताकत इसे बदल नहीं सकतीं। यह तो मनुष्‍य की बात थी, लेकिन भगवान को भी मृत्‍यु के आगे हार माननी ही पड़ी और अपने शरीर का त्‍याग करना पड़ा। आइए ईश्‍वर से जुड़ इस सत्‍य के बारे में बारे में विस्‍तार से जानते हैं…

भगवान राम को लेने आए थे कालदेव
लक्ष्‍मण जो कि अपने भ्राता राम के बिना एक क्षण भी नहीं रहते थे, उन्‍हें भी अपनी देह को त्‍यागना पड़ा। एक दिन भगवान राम से मिलने एक संत आए और उनसे अकेले में चर्चा करने के लिए कहने लगे। ये संत कोई और नहीं विष्‍णु लोक से भेजे गए कालदेव थे तो जो भगवान राम को यह बताने आए थे कि उनका जीवन अब धरती पर समाप्‍त हो गया है। दोनों एक कक्ष में चर्चा करने चले गए और लक्ष्‍मण को द्वारपाल के रूप में खड़ा किया कि कोई भी अंदर न आने पाए। कोई आया तो लक्ष्‍मण को मृत्‍युदंड मिलेगा।


लक्ष्‍मणजी ने ऐसे त्‍यागा शरीर
भगवान राम संत से चर्चा कर ही रहे थे दुर्वासा ऋषि अचानक से वहां आकर राम से मिलने की जिद करने लगे। लक्ष्‍मण के लाख मना करने पर भी व‍ह अपनी जिद पर अड़े रहे और न मिलने देने पर राम को शाप देने की बात कहने लगे। तब लक्ष्‍मण ने अहम फैसला लिया। वह नहीं चाहते थे कि राम को कोई शाप मिले इसलिए उन्‍होंने अपनी जान की परवाह किए बगैर दुर्वासा ऋषि को राम से मिलने जाने दिया। ऐसा होने पर राम ने लक्ष्‍मण को राज्‍य और देश से बाहर चले जाने को कहा। उस युग में देश से निकाला जाना भी मृत्‍यु के बराबर ही माना जाता थ। लक्ष्‍मण सरयू नदी के भीतर चले गए और अपना शरीर त्‍यागकर शेषनाग का अवतार ले लिया। फिर वह विष्‍णु लोक चले गए। इस प्रकार लक्ष्‍मण का अंत हो गया।

राम भी चले गए सरयू में

भगवान राम भी अपने भाई के बिना नहीं रह सकते थे। वह भी अपना राजपाट अपने पुत्रों को सौंपकर सरयू नदी में समा गए। फिर कुछ देर बार नदी से भगवान विष्‍णु प्रकट हुए और अपने भक्‍तों को दर्शन दिए। इस प्रकार राम ने भी अपने शरीर को त्‍यागकर विष्‍णु का रूप धारण किया और वैकुंठ धाम की ओर प्रस्‍थान किया।


शिकारी के हाथों हुई भगवान कृष्‍ण की मृत्‍यु
महाभारत के युद्ध के बाद जब दुर्योधन का अंत हुआ तो उसकी मां गांधारी विलाप करने रणभूमि में पहुंची। गांधारी अपने पुत्र की मृत्‍यु का कारण पांडवों और भगवान कृष्‍ण को समझती थी। क्रोध में आकर उन्‍होंने भगवान कृष्‍ण को 36 वर्षों के बाद मृत्‍यु का शाप दे दिया। ठीक 36 वर्षों के बाद उनका अंत एक शिकारी के हाथों से हुआ।


बलराम ने ऐसे किया शरीर का त्‍याग
बलरामजी ने समुद्र तट पर बैठका एकाग्र‍-चित्‍त से परमात्‍मा का चिंतन करते हुए अपनी आत्‍मा को आत्‍मस्‍वरूप में ही स्थिर कर लिया और मनुष्‍य का शरीर त्‍याग दिया।

नरसिंह का अंत ऐसे हुआ
हिरणाकश्यप का अंत करने के बाद नरसिंह भगवान के क्रोध को कोई भी शांत नहीं कर पा रहा था। तभी सब देवतागण भगवान शिव की शरण में पहुंचे और नरसिंह के क्रोध को शांत करने की बात कहने लगे। नरसिंह के क्रोध को शांत करने के लिए शिव को भगवान सरबेश्वर का अवतार लेना पड़ा। दोनों के बीच 18 दिन तक युद्ध चला और फिर 18वें दिन नरसिंह भगवान ने थककर स्‍वयं ही प्राण त्‍याग दिए।

बने भगवान शिव का आसन
नरसिंह ने अपने प्राण त्‍यागकर भगवान शिव से यह प्रार्थन की, कि वह उनकी चर्म को अपने आसन के रूप में स्‍वीकार कर लें। तब सरबेश्वर भगवान ने यह कहा कि उनका अवतरण केवल नरसिंह देव के कोप को शांत करने के लिए हुआ था। उन्होंने यह भी कहा कि नरसिंह और सरबेश्वर एक ही हैं। इसलिए उन दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।अपने प्राण त्यागने के बाद नरसिंह भगवान विष्णु के तेज में शामिल हो गए और शिव ने उनकी चर्म को अपना आसन बना लिया। इस तरह भगवान नरसिंह की दिव्य लीला का समापन हुआ।