अद्भुत आस्था का संगम पुरी रथयात्रा, जानिए क्या है महत्व
अरविन्द तिवारी की रिपोर्ट
जगन्नाथपुरी, पूर्व भारतीय उड़ीसा राज्य का पुरी जिसे पुरूषोत्तम पुरी , शंख क्षेत्र , श्री क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है जो भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीलाभूमि है। यहां स्थित भगवान जगन्नाथ का धाम हिन्दुओं के प्रमुख धामों में से एक है। उड़ीसा प्रांत के जगन्नाथपुरी में सैकड़ों वर्षों से निकलने वाली जगन्नाथ रथयात्रा का आयोजन आज होगा , यह पुरी का प्रधान पर्व है। जगन्नाथ रथ यात्रा का हिंदू धर्म में बहुत अधिक महत्व होता है। इस रथयात्रा का आयोजन उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर से होता है। इस रथयात्रा को गुण्डीचा यात्रा , पतितपावन यात्रा , जनकपुरी यात्रा नवदिवसीय यात्रा तथा दशावतार यात्रा के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार हर साल आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जगन्नाथ रथ यात्रा निकाली जाती है , जो देवशयनी एकादशी के दिन तक चलेगी।
शामिल होते हैं दुनिया के लाखों लोग
पिछले दो वर्षों से कोरोना की वजह से उतने धूमधाम से रथ यात्रा का उत्सव नहीं मनाया जा रहा था। दुनियां की सबसे बड़ी जगन्नाथपुरी की रथ यात्रा ना सिर्फ ओड़िशा बल्कि पूरे भारत और विदेशों में भी प्रसिद्ध है। इसे रथ महोत्सव भी कहा जाता है , इसमें देश-विदेश से आये लाखों श्रद्धालु शामिल होते हैं। इस रथयात्रा में भगवान जगन्नाथ के अलावा उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा का रथ राजसी पोशाक में निकाला जाता है। इस रथ यात्रा को लेकर मान्यता है कि एक दिन भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने उनसे द्वारका के दर्शन कराने की प्रार्थना की थी। तब भगवान जगन्नाथ ने अपनी बहन की इच्छा पूर्ति के लिये उन्हें रथ में बिठाकर पूरे नगर का भ्रमण करवाया था और इसके बाद से इस रथयात्रा की शुरुआत हुई थी।
रथ खींचने से मिलता है 100 यज्ञों का पूण्य
जगन्नाथजी की रथ यात्रा के बारे में स्कंद पुराण , नारद पुराण , पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है। इसलिये हिंदू धर्म में इसका विशेष महत्व बताया गया है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जो भी व्यक्ति इस रथयात्रा में शामिल होकर इस रथ को खींचता है उसे सौ यज्ञ करने के बराबर पुण्य प्राप्त होता है। स्कन्द पुराण में वर्णित है कि जो व्यक्ति रथ यात्रा में शामिल होकर जगत के स्वामी जगन्नाथजी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह सारे कष्टों से मुक्त हो जाता है, जबकि जो व्यक्ति जगन्नाथ को प्रणाम करते हुये मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाता है वो सीधे भगवान विष्णु के उत्तम धाम को प्राप्त होता है और जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण , बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुये करता है उसे मोक्ष मिलता है।
तीनों रथों की अलग अलग महत्ता
सैकड़ों साल पुराने इस मंदिर में भगवान कृष्ण को जगत के नाथ जगन्नाथजी के रूप में पूजा जाता है और इनके साथ उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा भी विराजमान हैं। रथयात्रा में तीनों ही देवों के रथ निकलते हैं। रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ के साथ भाई बलराम और बहन सुभद्रा के लिये अलग-अलग रथ होते हैं और इन रथों को बनाने की शुरुआत अक्षय तृतीया से होती है। रथयात्रा में सबसे आगे तालध्वज रथ पर श्रीबलराम , बीच में पद्मध्वज रथ पर बहन सुभद्रा और सबसे पीछे नंदीघोष रथ पर भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। सभी के रथ अलग-अलग रंग और ऊंचाई के होते हैं। भगवान बलरामजी के रथ को ‘तालध्वज’ कहा जाता है और इसकी पहचान लाल और हरे रंग से होती है। वहीं सुभद्रा के रथ का नाम ‘दर्पदलन’ अथवा ‘पद्म रथ’ है,उनके रथ का रंग काला या नीले रंग को होता है, जिसमें लाल रंग भी होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदीघोष अथवा गरुड़ध्वज कहा जाता है, इनका रथ लाल और पीले रंग का होता है। ये सभी रथ नीम की परिपक्व और पकी हुई लकड़ी से तैयार किये जाते हैं , इसे दारु कहा जाता है
रथ में होते हैं 16 पहिये
भगवान जगन्नाथ के रथ में कुल 16 पहिये होते हैं और यह बाकी दोनों रथों से बड़ा भी होता है। इसमें भगवान जगन्नाथ का रथ 45.6 फीट ऊंचा , बलराम का रथ 45 फीट और देवी सुभद्रा का रथ 44.6 फीट ऊंचा होता है। भगवान के रथ में एक भी कील या कांटे आदि का प्रयोग नहीं होता। यहां तक की कोई धातु भी रथ में नहीं लगायी जाती है। रथ की लकड़ी का चयन बसंत पंचमी के दिन और रथ बनाने की शुरुआत अक्षय तृतीया के दिन से होती है।
छर पहनरा की है परम्परा
तीनों रथ के तैयार होने के बाद इसकी पूजा के लिये पुरी के गजपति राजा की पालकी आती है। इस पूजा अनुष्ठान को ‘छर पहनरा’ नाम से जाना जाता है। इन तीनों रथों की वे विधिवत पूजा करते हैं और ‘सोने की झाड़ू’ से रथ मण्डप और यात्रा वाले रास्ते को साफ किया जाता है।
गुण्डीचा मंदिर होता है विश्राम स्थल
आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के साथ रथ को लोग खींचते हैं। जिसे रथ खींचने का सौभाग्य मिल जाता है , वह महाभाग्यशाली माना जाता है। जगन्नाथ मंदिर से रथ यात्रा शुरू होकर तीन किलोमीटर दूर गुंडीचा मंदिर पहुँचती है। इस स्थान को भगवान की मौसी का घर भी माना जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार यहीं पर विश्वकर्मा ने इन तीनों प्रतिमाओं का निर्माण किया था अतः यह स्थान जगन्नाथ जी की जन्म स्थली भी है। यहां तीनों देव सात दिनों के लिये विश्राम करते हैं। आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ पुनः मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। वापसी की यह यात्रा बहुड़ा यात्रा कहलाती है। जगन्नाथ मंदिर पहुँचने के बाद वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव-विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है।
पुरी शंकराचार्य के प्रथम दर्शन से हुई रथयात्रा की शुरुआत
पूर्वाम्नाय गोवर्धन मठ पुरी पीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी श्री निश्चलानंद सरस्वती जी महाराज ने पच्चीस सौ वर्षों से चली आ रही परंपरानुसार रथारुढ़ भगवान जगन्नाथ का प्रथम दर्शन कर विश्वप्रसिद्ध जगन्नाथपुरी रथयात्रा की शुरुआत की। तत्पश्चात गजपति महाराज ने सोने की झाड़ू से रास्ता बुहारकर रथ को आगे बढ़ाने की शुरुआत किया। रथारूढ़ भगवान के विग्रह स्पर्श संबंधी नियम एवं अधिकार के संबंध में पुरी शंकराचार्य स्वामी श्रीनिश्चलानन्द सरस्वती जी महाराज द्वारा निर्धारित नियमावली को न्यायालय ने यह उद्घृत करते हुये स्वीकार किया कि धार्मिक क्षेत्र में शंकराचार्य जी सर्वोच्च न्यायाधीश हैं तथा उनके द्वारा प्रदत्त नियमों को अक्षरशः स्वीकार किया जाता है तथा राज्य शासन इसका परिपालन सुनिश्चित करें। रथयात्रा में
देव प्रतिमाओं को रथों में स्थापित करने के बाद पुरी के राजा गजपति महाराजा दिव्य सिंह देव ने सोने की झाड़ू से रथों को बुहारने की परंपरा को निभाया। इसके बाद गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने देव प्रतिमाओं का दर्शन किया और फिर रथों को खींचा गया।ढोल, मंजीरे और शंख की ध्वनि तथा ‘हरि बोल’ के उद्घोष के साथ भगवान जगन्नाथ , बलभद्र और देवी सुभद्रा की वार्षिक रथयात्रा को शुरुआत हुई।यह जगन्नाथ रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से आरंभ होकर दशमी तिथि को समाप्त होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार रथयात्रा निकालकर भगवान जगन्नाथ को प्रसिद्ध गुंडिचा माता के मंदिर पहुंचाया जाता हैं , जहां भगवान सात दिनों तक विश्राम करते हैं। इसके बाद भगवान जगन्नाथ की वापसी की यात्रा शुरु होती है। भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा पूरे भारत में एक त्योहार की तरह मनायी जाती है। श्री जगन्नाथ मंदिर से तीन किलोमीटर दूर गुंडिचा मंदिर तक देव प्रतिमाओं को ले जाने वाले तीन रथों के आसपास पांच स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था की गई थी।