पूरी दुनिया के लिए घातक न बन जाए अफगानिस्तान में तालिबानी सत्ता!
bramhdeep alune
दुर्गम पहाड़ों को चीरकर आगे बढ़ जाने की मनुष्य की जिजीविषा में दर्रों की भूमिका बेहद अहम मानी जाती है। इन दर्रो पर भूकम्प और ज्वालामुखी की छाप तो होती ही है लेकिन ये दर्रे सैकड़ों वर्षों से व्यापार,प्रवास और युद्द के सुरक्षित मार्ग भी बन गए। यूरोप और दक्षिण पूर्व एशिया को जमीन से जोड़ने वाला अफगानिस्तान अपने भौगोलिक दर्रों की वजह से इतिहास में हमेशा दर्ज होता रहा है। लेकिन अब यह दर्रे कहीं दक्षिण एशिया समेत पूरी दुनिया की सुरक्षा के लिए अभिशाप न बन जाएं,इसे लेकर आशंकाएं गहरा गई है। दरअसल अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी के साथ ही आतंकवाद को सुरक्षित ठिकाना मिलने की संभावनाएं बढ़ गई है और इसके दूरगामी परिणाम बेहद घातक हो सकते है। अफगानिस्तान पर हिंदुकुश पर्वत श्रृंखला का बड़ा प्रभाव है और यह इस क्षेत्र को तीन भागों में बांटती है,मध्य उच्चभूमि,उत्तरी मैदान और दक्षिण-पश्चिमी पठार। उत्तरी उच्चभूमि में गहरी,संकरी घाटियां हैं। जो खास तरह के लंबे दर्रे बनाती हैं। हिंदूकुश पर्वतों के प्रमुख दर्रे खैबर,गोमल एवं बोलन हैं। ये दर्रे व्यापारियों के लिए खास तरह का रास्ते रहे हैं। प्राचीन काल में इन्हीं दर्रो से होकर यूरोप और मध्य एशिया से विभिन्न आक्रमणकारी भारत तक पहुंचते रहे। 1990 के दशक में तालिबान के उभार के बाद ये दर्रे आतंकियों की पनाहगाह बन गये, जिसके दुर्गम रास्तों से होते हुए प्रशिक्षित आतंकियों ने कई देशों में कोहराम मचाया। दो दशक की जानलेवा ख़ामोशी के बाद तालिबान पुनः अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हो गया है और इससे आतंकी हिंसा की आशंकाएं पुन: गहरा गयी है ।
अफगानिस्तान में रहने वाले विभिन्न जातीय समूहों की विविधता और भौगोलिक परिस्थितियां आतंक को बढ़ावा देने के लिए मुफीद है । अधिकांश आबादी पठान है,इसके बाद पच्चीस से तीस फीसदी ताजिक, करीब 10 फीसदी उजबेक,पांच फीसदी हजारा और दस से 15 फीसदी अन्य जातीय समूह है। अफगानिस्तान के पूर्व में पाकिस्तान,उत्तर पूर्व में भारत तथा चीन,उत्तर में ताजिकिस्तान,कज़ाकस्तान तथा तुर्कमेनिस्तान तथा पश्चिम में ईरान है। अफ़ग़ानिस्तान चारों ओर से ज़मीन से घिरा हुआ है और इसकी सबसे बड़ी सीमा पूर्व की ओर पाकिस्तान से लगी है। इसे डूरण्ड रेखा भी कहते हैं। केन्द्रीय तथा उत्तरपूर्व की दिशा में पर्वतमालाएँ हैं जो उत्तरपूर्व में ताजिकिस्तान स्थित हिन्दूकुश पर्वतों का विस्तार हैं। अफगानिस्तान की कबायली संस्कृति मध्य एशिया में बसने वाले कई नृजातीय समूहों को भी पसंद आती है। पश्तून,उजबेक,ताजिक और हजारा जैसे कबीलों का सांस्कृतिक समन्वय पामीर के पठार से चीन के शिंजियांग प्रांत तक नजर आता है और साम्यवादी चीन के लिए यही स्थिति मुश्किल पैदा करती रही है।
तालिबान के प्रति चीन की गर्मजोशी का प्रमुख कारण इस साम्यवादी देश की सुरक्षा चिंताएं भी है। पिछले महीने जब तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल चीन पहुँचा तो चीनी विदेश मंत्री वांग यी ने इस प्रतिनिधिमंडल से साफ कहा है कि उसे 'चीन विरोधी' आतंकवादी संगठन ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट से संबंध तोड़ने होंगे। वास्तव में चीन तालिबान के उभार को उसके उत्तर पश्चिम के अशांत क्षेत्र शिंजियांग प्रांत के लिए खतरनाक समझता है। यहां रहने वाले उइगर मुस्लिम चीन के खिलाफ पृथकतावादी मूवमेंट चला रहे हैं। 'ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट' का मकसद चीन से अलग होना है। यह पृथकतावादी मूवमेंट 1949 की स्थिति बहाल करना चाहता है और स्वतंत्र पूर्वी तुर्किस्तान को ही स्वीकार करता है। पूर्वी तुर्किस्तान ही चीन प्रशासित शिंजियांग है। शिंजियांग की सरहदे दक्षिण में तिब्बत और भारत,पूर्व में मंगोलिया, उत्तर में रूस और पश्चिम में कजाकिस्तान,किरगिज़स्तान,ताजिकिस्तान,अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान से मिलती हैं। चीन का सबसे बड़ा संकट शिंजियांग की पश्चिम की वह सीमा है जो मुस्लिम देशों से मिलती है और यही कारण है कि चीन अफगानिस्तान में मिलिट्री बेस भी बनाना चाहता है। चीन ये आर्मी कैंप दूर-दराज के पहाड़ी इलाके वाखान कॉरीडोर के पास बनाना चाहता है। यहां पर चीन की सीमा अफगानिस्तान से मिलती है। चीन इस इलाके को प्रभाव में लेकर 'ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट' के प्रभाव को खत्म करना चाहता है। चीन का विश्वास है कि उइगर आतंकी इसी कॉरीडोर से उसके शिंजियांग प्रांत में घुसते हैं। उज्बेक,तुर्कमान और परशियन भाषा बोलने वाले अफगान चीन के वीगर मुसलमानों से आसानी से जुड़ जाते है।
पिछले कुछ समय से अफगानिस्तान में आईएस के उभार से चीन के अशांत शिंजियांग में आंतरिक अशांति और ज्यादा बिगड़ने का खतरा उत्पन्न हो गया है। मध्य एशियाई देशों में सक्रिय इस्लामिक स्टेट से इस क्षेत्र में सहानुभूति रखने वाले कट्टरपंथी मौजूद है। इस क्षेत्र के विभिन्न देशों अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, भारत, कज़ाख़स्तान, किर्गिज़स्तान, पाकिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान,उज़्बेकिस्तान और शिंजियांग से कुल मिलाकर हजारों लड़ाके इस्लामिक स्टेट के समर्थन में लड़ने के लिए सीरिया और इराक़ जा चुके हैं। ऐसे में इस्लामिक स्टेट ने उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान में अपने पैर जमाने की कोशिशें जारी रखी हैं ताकि वो मध्य एशिया, चेचन और चीनी वीगर उग्रवादियों से गठजोड़ कर सके। अब तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता में काबिज होने के बाद कई नाराज जातीय समूह इस्लामिक स्टेट से जुड़ सकते है और यह इस पूरे क्षेत्र के लिए सुरक्षा संकट बढ़ा सकता है। बेनजीर भुट्टों ने बाकायदा इसे स्वीकार भी किया था। उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है,मेरे पास 1990 में आईएसआई के दफ्तर से यह संदेश आया कि अरब,पाकिस्तान और अफगानिस्तान के एक लाख से ज्यादा मुजाहिदीन इस बात के लिये तैयार है कि वह कश्मीर में घुसकर कश्मीरियों की आज़ादी की लड़ाई में मदद करें। वह सारे बहादुर और प्रशिक्षित है और हिंदुस्तान की फौजों से बड़ी आसानी से लोहा ले सकते है।
अफगानिस्तान में आतंकवाद फलने फूलने के बाद यहां की जमीन चीन ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया से लेकर रूस तक को आशंकित करती रही है। इसका एक प्रमुख कारण पाकिस्तान के वे आतंकी केंद्र भी है जहां तालिबान समेत कई आतंकी संगठन प्रशिक्षण हासिल करते रहे है। मध्यपूर्व,कश्मीर,अजरबैजान और आर्मेनिया समेत कई क्षेत्रों में हुए युद्दों और संघर्षों में विरोधी देशों ने अस्थिरता फैलाने के लिए भाड़े के लड़ाकों का उपयोग किया है। पैसे के लिए दुनिया के किसी भी भाग में जाकर लड़ने के लिए तैयार यह सैनिक अफगानिस्तान,पाकिस्तान,लीबिया,लेबनान,सीरिया,इराक,यमन,सुडान और नाइजीरिया जैसे गरीब और गृहयुद्द से जूझने वाले देशों से होते है। सैनिकों के साथ ही इनमें आतंकवादियों का भी उपयोग किया जाता है,जिनके प्रशिक्षण अफगानिस्तान और पाकिस्तान में होते रहे है। पाकिस्तान में सैयद मौदूदी इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट और जमायत-उल-उलूम-इल–इस्लामिया जैसे संस्थान बहुत कुख्यात है।
मुजफ्फराबाद,अलियाबाद,कहुटा,हजीरा,मीरपुर,रावलकोट,रावलपिंडी और पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर में अनेक आतंकी प्रशिक्षण केंद्र है। इस संस्थानों का काम इस्लामी चरमपंथियों को प्रशिक्षण और आर्थिक सहायता देना है। यहां पर सिंकियांग के उइगुर समेत उजबेक और तुर्क प्रशिक्षण लेते रहे है। चेचन्या में रुसी सेना से लड़ने वाले चरमपंथी और मुल्ला उमर समेत तालिबान के अधिकांश लड़ाके यहीं से निकले है।
कश्मीर के कुख्यात आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद का प्रमुख मौलाना मसूद अजहर पाक का एक प्रमुख आतंकी है। इस आतंकी संगठन का तंत्र दक्षिण एशिया के साथ पश्चिम एशिया,अफ्रीका और यूरोप तक फैला हुआ है। 1993 पाकिस्तान में बने आतंकी संगठन हरकत-उल –अंसार का मुख्यालय मुजफ्फराबाद में है। इसके साथ की इसका एक केंद्र अफगानिस्तान के खोस्त में है। यह कश्मीर के अलावा बोस्निया और म्यांमार में भी सक्रिय है। वह अफगानिस्तान और पाकिस्तान के मदरसों और आतंकी प्रशिक्षण केन्द्रों पर अक्सर प्रशिक्षु जिहादियों को मजहबी तकरीर सुनाने के लिए जाता है। जमात- उद- दावा और लश्कर- ए-तैयबा, मरकज-अलदावा-वर इरशाद नामक अफगानी मुजाहिदीन गिरोह का अंग है। अफगानिस्तान में अशांति का प्रमुख कारण यही आतंकी केंद्र रहे है जिनके प्रभाव में तालिबान निरंतर मजबूत हुआ है ।
तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता में आने से म्यांमार भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। म्यांमार में बौद्ध –रोहिंग्या मुस्लिम संघर्ष के बीच जेहादी संगठन एकजुट होकर म्यांमार को सबक सिखाने की घोषणा कर चुके है,इसमें यमन का अल कायदा समूह और पाकिस्तान के लश्कर-ए –तैयबा शामिल है। म्यांमार में लम्बे समय से मूलभूत अधिकारों से वंचित रोहिंग्या सुन्नी इस्लाम को मानते हैं । ये लोग 1991-92 में म्यांमार में सेना के दमन के दौर में करीब ढाई लाख रोहिंग्या बांग्लादेश भाग गए थे। उस दौरान पश्चिम बंगाल और उत्तर पूर्वी राज्यों की सीमा से घुसकर तकरीबन चालीस हजार रोहिंग्या भारत के विभिन्न स्थलों पर बस गये। अब तालिबान के मजबूत होने से भारत के बौद्ध धर्म स्थलों को निशाना बनाया जा सकता है।
आतंकी संगठन अराकन रोहिंग्या सालवेशन आर्मी म्यांमार में सेना पर हमले करने के लिए जिम्मेदार रही है और उसके सम्बन्ध पाकिस्तान से माने जाते है। यह आतंकी संगठन हाफिज सईद के प्रभाव में है। यहीं नहीं बांग्लादेश के अतिवादी संगठन हूजी का भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के कई कट्टरपंथी संगठनों से गहरे सम्बन्ध है और वे आईएसआई के इशारे पर काम करते है। 1980 के दशक में सोवियत-अफगान युद्ध जब चल रहा था उसी को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेश की कट्टरपंथी ताकतों ने कुख्यात आतंकी संगठन हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लाम की स्थापना की थी। इस युद्द में बांग्लादेशी मुजाहिदीनों ने भी भाग लिया था। अब यह आतंकी संगठन संयुक्तराष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित है। हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लाम पश्चिमी म्यांमार में रोहिंग्या विद्रोह का समर्थन करने के लिए जाना जाता है। इसका कथित रूप से रोहिंग्या सॉलिडेरिटी ऑर्गनाइज़ेशन और अराकान रोहिंग्या नेशनल ऑर्गनाइज़ेशन के साथ संबंध है।
भारत के एक और पड़ोसी श्रीलंका में भी आतंकी हमलों के तार अफगानिस्तान से जुड़ने की पुष्टि हुई है। 2019 में ईस्टर पर हुए आत्मघाती हमले के बाद श्रीलंका सरकार ने स्थानीय जिहादी समूह नेशनल तौहीद जमात तथा दो अन्य संगठनों को प्रतिबंधित कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि एनटीजे देश के कुछ बौद्ध स्मारकों को उड़ाने की योजना बना रहा था। जाँच एजेंसियों के अनुसार 2016 में केरल के कुछ कट्टरपंथी लोगों का एक समूह श्रीलंका के नेगोम्बो गया था। नेगोम्बो समेत श्रीलंका के कई शहरों में 2019 में ईस्टर के मौके पर धमाके हुए थे,जिसमें सैंकड़ों लोग मारे गए थे। माना जाता है कि ये लोग बाद में अफ़ग़ानिस्तान जाकर आईएस में शामिल हो गए थे। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में प्रशिक्षित कट्टरपंथी विचारधारा से मालदीव और बांग्लादेश जैसे देशों के उदार या धर्मनिरपेक्ष लोग दहशत में है।
जाहिर है तालिबान के प्रभाव में दक्षिण एशिया और मध्य पूर्व में काम करने वाले कई आतंकी संगठन है। अफगानिस्तान एक बार फिर दुनिया के आतंकी संगठनों के लिए सुरक्षित ठिकाना बन सकता है । इस समस्या से निपटने के लिए भारतीय उपमहाद्वीप समेत दुनिया को नीतिगत कदम तुरंत उठाना होंगे। इसमें पाकिस्तान को नियंत्रित किया जाना बेहद जरूरी होगा।