भोपाल गैस त्रासदी के 34 बरस : जख्म– आज भी ताजा

भोपाल
भोपाल में रह कर आप भोपाल गैस त्रासदी को कैसे याद करते हैं? यह सवाल तब हुआ जब गैस त्रासदी की 34 वीं बरसीं पर अब तक हुए कामों का अपडेट जाना जा रहा था। सवाल तो यह भी है कि प्रकृति के साथ तमाम तरह के खिलवाड़ करते हुए, अपने लाभ के लिए हर कैमिकल, हर उपयुक्तु-अनुपयुक्तक साधन का बेधड़क प्रयोग करते हुए हम भोपाल गैस त्रासदी को कैसे याद करते हैं? 2 और 3 दिसंबर सभी के लिए एक तारीख भर है लेकिन भोपाल के लिए ऐसा जख्मु है जिसे हर साल कुरेदा जाता है ताकि तरक्की की दौड़ में लापरवाह हुआ इंसान कुछ सबक ले सके। वह जान सके कि 1984 में दो सप्तााह के दौरान आठ हजार से अधिक लोगों की मौत का कारण बनी गैस त्रासदी के 34 साल होने के बाद भी उतनी ही जानलेवा है। शोध के निष्कर्ष बता रहे हैं कि गैस पीड़ितों में कैंसर, टीबी, एवं फेफड़ों के रोगों की वजह से मौतों की दर गैर पीड़ितों की तुलना में दोगुनी हैं। किडनी खराब होने की वजह से गैस पीड़ितों की मौत अपीड़ितों की तुलना में तीन गुना ज्यादा हुई है। उस त्रासदी का 346 टन जहरीला कचरा आज भी निस्तारण के लिए एक चुनौती बना हुआ है।
ठीक 34 साल पहले 2-3 दिसंबर 1984 की मध्यरात को हुई इस दुखद त्रासदी ने पूरे विश्व को झकझोर कर रख दिया था। मगर त्रासदी के 34 साल बाद भी लापरवाहियां बदस्तूथर जारी है, जैसे हमें अपनी लापरवाहियों के कारण हुई अपने पड़ोसी की मृत्यु पर अफसोस नहीं होता। इस दुर्घटना को भले ही 34 साल बीत चुके हों, लेकिन यहां के लोगों आज भी इस घटना को याद कर दहल जाते हैं। और इनका सहम जाना लाजमी है। इतने सालों बाद भी पीड़ितों की तकलीफें कम नहीं हुई हैं। गैस के प्रभाव के कारण असमय बीमारियों और मौतों का सिलसिला जारी है। संभावना ट्रस्टा के एक शोध में सामने आया है कि सामान्य लोगों की मौतों के मुकाबले गैस पीड़ितों की मौत का आंकड़ा 28 फीसदी ज्यादा है। आयुर्वेद चिकित्सक डॉ. मृत्युंजय माली ने कहा, "गैस कांड में गंभीर रूप से प्रभावित बस्तियों के 2200 से अधिक व्यक्तियों और गैस कांड से अप्रभावित 953 व्यक्तियों पर शोध किया गया गया। इस शोध में पता चला कि पीड़ितों की मृत्यु दर अपीड़ितों कि तुलना में 28 प्रतिशत ज्यादा है। शोध का निष्कर्ष यह भी दर्शाता है कि गैस पीड़ितों में कैंसर, टीबी, एवं फेफड़ों के रोगों की वजह से मौतों की दर अपीड़ितों की तुलना में दोगुनी हैं और किडनी खराब होने की वजह से गैस पीड़ितों की मौत अपीड़ितों की तुलना में तीन गुना ज्यादा हुई है।
सामुदायिक शोधकर्मी फरहत जहां ने शोध के निष्कर्ष के आधार पर बताया, "गैस पीड़ितों में जारी मौतों के पंजीकरण की व्यवस्था होनी चाहिए। पीड़ितों में फेफड़े की बीमारियां, टीबी व अन्य बीमारियों की अधिकता को देखते हुए इलाज व्यवस्था की समीक्षा होनी चाहिए। गैस पीड़ितों को गुर्दे की खराबी से होने वाली मौत से बचाने के लिए हानिकारक दवाओं, खासकर दर्द निवारक दवाओं के इस्तेमाल पर नियंत्रण होना चाहिए।"
भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुेल जब्बारर कहते हैं कि हादसे के 3 दशक बाद भी ना तो राज्य सरकार ने और ना ही केन्द्र सरकार ने इसके नतीजों और प्रभावों का कोई समग्र आकलन करने की कोशिश की है, ना ही उसके लिए कोई उपचारात्मक कदम उठाए हैं। 14-15 फरवरी 1989 को केन्द्र सरकार और कम्पनी के बीच हुआ समझौता पूरी तरह से धोखा था और उसके तहत मिली रकम का हरेक गैस प्रभावित को पाँचवें हिस्से से भी कम मिल पाया है। नतीजतन, गैस प्रभावितों को स्वास्थ्य सुविधाओं, राहत और पुनर्वास, मुआवज़ा, पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति और न्याय – सभी के लिए लगातार लड़ाई लड़नी पड़ी है।