हॉटस्टार की ये सीरीज़ न्यूक्लियर एनर्जी के बारे में आपकी धारणा बदल देगी

नई दिल्ली
ग्लोबल वार्मिंग और पानी की कमी से जुड़ी कई खबरें आजकल ट्रेंड में रहती हैं. कई रिपोर्ट्स में ये कहा जा चुका है कि ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर सचेत ना हुआ गया तो मानव सभ्यता कभी वापसी नहीं कर पाएगी. एक ऐसे दौर में, एचबीओ पर एक ऐसी सीरीज़ आती है जो ये साबित कर देती है कि ग्लोबल वॉर्मिंग जैसे खतरे तो दूर-दराज के हैं, अगर इंसान अपने अहंकार और लालच से नहीं उबरा तो न्यूक्लियर रेडिएशन जैसे खतरे पल में मानवता को तबाह कर सकते हैं. इसी की बानगी एचबीओ के नए शो चेरनोबेल में देखने को मिलती है.
1986 में सोवियत यूक्रेन में हुई एक न्यूक्लियर त्रासदी पर आधारित इस शो को आईएमडीबी में अभी तक सबसे अधिक रेटिंग्स मिली है. इस सीरीज़ ने न्यूक्लियर एनर्जी के फायदे और नुकसानों को लेकर बहस छेड़ने की एक सार्थक कोशिश की है. एक बेहद डार्क और डिप्रेसिंग शो होने के बावजूद इस शो को दुनिया में सबसे ज्यादा पसंद किया जा रहा है क्योंकि कहीं ना कहीं लोग इस सीरीज़ के साथ रिलेट कर पा रहे हैं.
1970 में बने चेरनोबेल पावर प्लांट में हुई इस दुर्घटना के समय वहां चार न्यूक्लियर रिएक्टर्स मौजूद थे जिनका काम बाकी पावर प्लांट्स की तरह इलेक्ट्रिक पावर का इस्तेमाल कर एनर्जी जनरेट करना होता लेकिन न्यूक्लियर रिएक्टर ये काम न्यूक्लियर फिज़न से करता है. फिज़न यानी वो तरीका, जिसमें यूरेनियम के एटम स्पि्ल्ट हो जाते हैं और बड़ी मात्रा में एनर्जी रिलीज़ होती है.
26 अप्रैल 1986 में रात लगभग 1.30 बजे चेरनोबेल के कुछ इंजीनियर्स न्यूक्लियर रिएक्टर की सेफ्टी फीचर को बंद करने की कोशिश में थे क्योंकि वे एक सेफ्टी टेस्ट करना चाहते थे.
इस न्यूक्लियर रिएक्टर के डिज़ाइन में गलतियां थी, इसके साथ ही ये इंजीनियर्स इस रिएक्टर को एक्स्ट्रीम परिस्थितियों में चलाने लगते है जिसके चलते रिएक्टर नंबर 4 में ब्लास्ट हो जाता है. इससे न्यूक्लियर कोर खुल जाता है और वहां के पर्यावरण में हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम से 400 गुणा रेडिएशन फैलने लगता है. पावर में आई अत्यधिक तेजी के चलते न्यूक्लियर रिएक्टर के यूनिट में ये धमाका होता है. जिस समय ये धमाका होता है, उस समय साइट पर 600 लोग काम कर रहे थे और इनमें से 134 लोग रेडिएशन के जहर का शिकार हो गए थे. रेडिएशन के चलते कई लोग दर्दभरी मौत मरने को मजबूर हुए थे. रूस, यूक्रेन और बेलारूस के बीच मौजूद 150,000 स्क्वायर किलोमीटर क्षेत्र प्रभावित हुआ.
इस रेडिएशन को फैलने से रोकने के लिए हेलीकॉप्टर्स द्वारा रेत फेंका गया, रेडिएशन को ब्लॉक करने वाली लेड का इस्तेमाल हुआ लेकिन इसके बावजूद धमाके के चलते 10 दिनों तक रेडिएशन फैलता रहा. अगर समय रहते एक वैज्ञानिक चीजें नहीं संभालता, तो इस दुर्घटना से आधे से ज्यादा यूरोप और एशिया का एक हिस्सा प्रभावित हो सकता था. ऑफिशियल सोवियत के आंकड़ों के मुताबिक, इस दुर्घटना से दो प्लांट वर्कर्स की मौत हुई. इसके अलावा 28 इंजीनियर्स और फायरफाइटर्स एक्यूट रेडिएशन सिंड्रोम के चलते मारे गए. हालांकि इस शो के मुताबिक, 1987 से इस आंकड़ें में कोई बदलाव नहीं आया है.
वहां मौजूद प्रशासन ने लोगों को 27 अप्रैल के बाद यानि धमाके के 24 घंटे बीत जाने के बाद निकालना शुरू किया था. सोवियत ने 1600 मील के क्षेत्र पर प्रतिबंध लगा दिया था और वहां मौजूद करीब 3 लाख लोगों को बसों में भरकर सुरक्षित स्थान ले जाया गया था. एक एक्सक्लूज़न जोन बनाया गया. इस जोन के बारे में कहा गया कि यहां अब अगले 3000 सालों तक मानवों का बसना मुमकिन नहीं हो पाएगा. एक रिपोर्ट का ये भी कहना है कि अगले 20 हजार सालों तक यहां इंसानों का रहना मुश्किल है. हालांकि इसके बावजूद कई लोग ऐसे जो इस जोन के नज़दीक रहते हैं. हर साल इस क्षेत्र के आसपास 60 हजार टूरिस्ट्स पहुंचते हैं लेकिन इस एक्सक्लूज़न जोन का बड़ा हिस्सा वीरान है और मानवीय भूल का जीता जागता उदाहरण है.