गुम होता दिख रहा चुनावी राज्यों में जातिगत जनगणना का मुद्दा
भोपाल। करीब एक महीने पहले 2 अक्टूबर को जब बिहार सरकार ने जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी कर दिए, ऐसा लगा जैसे देश की सियासत में उबाल आ जाएगा। कोई इसे मंडल पार्ट टू बता रहा था तो कोई इसे नई ओबीसी क्रांति। जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी की बात होने लगी थी। कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार के इस कदम में भाजपा को हराने का मंत्र देखने लगे थे।
कांग्रेस ने जातिगत जनगणना कराने का वादा तक कर दिया
कांग्रेस ने तो राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश तक सत्ता में आने पर जातिगत जनगणना कराने का वादा तक कर दिया। चुनावी राज्यों में कांग्रेस ने जातिगत जनगणना के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया लेकिन अब ये शोर मद्धिम पड़ता नजर आ रहा है। चुनावी राज्यों में जातिगत जनगणना का मुद्दा कहीं गुम सा होता दिख रहा है। चुनावी राज्यों में अपने प्रचार अभियान की शुरुआत में पूरी शिद्दत से उठाने वाली कांग्रेस के सुर भी इसे लेकर अब नरम पड़ गए हैं।
कांग्रेस जातिगत जनगणना को लेकर बज बनाने में विफल रही
कांग्रेस ने भी राज्यों के विधानसभा चुनाव में जातिगत जनगणना के मुद्दे को छोड़ सा दिया है। ऐसे में सवाल ये उठ रहे हैं कि कांग्रेस को जिस मुद्दे के सहारे ये लग रहा था कि वह बीजेपी को हरा देगी, आखिर पार्टी ने उस जातिगत जनगणना के मुद्दे को छोड़ क्यों दिया? कांग्रेस जातिगत जनगणना को लेकर बज बनाने में विफल रही है। कांग्रेस के नेताओं ने चुनावी रैलियों में जातिगत जनगणना कराने के वादे तो किए लेकिन ये बताने से गुरेज करते रहे कि जातिगत जनगणना के बाद आखिर क्या? जातिगत जनगणना से ओबीसी को क्या लाभ है? पार्टी ये समझाने में फेल रही है। उन्होंने कांग्रेस के इस मुद्दे को छोड़ देने को लेकर कहा कि इसके तीन अहम कारण हैं। एक कारण ये है कि ओबीसी कोई होमोजीनियस वोट बैंक नहीं है। इसमें भी अगड़ा और पिछड़ा की लड़ाई रही है। इसकी वजह से लोवर ओबीसी उदासीन है। अब खतरा ये है कि ओबीसी एकमुश्त आने से रहे, जो सवर्ण साथ हैं कहीं वह भी ना छिटक जाएं।लोकल लीडरशिप और प्रतिनिधित्व में ओबीसी का अभाव और कई सीटों पर सवर्ण मतदाताओं की निर्णायक भूमिका भी कांग्रेस के इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डालने की वजह हो सकती है।
कांग्रेस की अधिक मुखरता उल्टा पडऩे का खतरा भी था
लोकल लीडरशिप की बात करें तो छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और राजस्थान में सीएम अशोक गहलोत दोनों ही नेता खुद भी ओबीसी हैं। दोनों राज्यों में कांग्रेस ओबीसी की पार्टी बनी हुई है। मध्य प्रदेश की बात करें तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह दोनों ही सामान्य वर्ग से आते हैं। बीजेपी की ओर से सीएम शिवराज ओबीसी नेता हैं। राजस्थान से लेकर मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक बीजेपी का लोकल लीडरशिप की जगह पीएम मोदी का चेहरा आगे कर मैदान में उतरने की रणनीति ने भी कांग्रेस को बैकफुट पर धकेला। पीएम मोदी खुद को ओबीसी नेता, वंचित वर्ग से आने वाला नेता बताने का कोई मौका नहीं छोड़ते। ऐसे में कांग्रेस की अधिक मुखरता उल्टा पडऩे का खतरा भी था।
मुद्दा जनता को कनेक्ट नहीं कर पाया
कहा तो ये जा रहा है कि बिहार सरकार ने जब जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी किए, तब विपक्ष को उम्मीद थी कि अब ये मुद्दा दूसरे राज्यों में भी बड़ा रूप ले लेगा। जगह-जगह आंदोलन होंगे, ओबीसी समाज के लोग जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी का नारा बुलंद कर सडक़ों पर उतर आएंगे, जनांदोलन के दबाव में केंद्र सरकार बैकफुट पर आ जाएगी और विपक्ष को नतीजे में मिल जाएगा पॉलिटिकल गेन। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस के तमाम बड़े नेता केंद्रीय कैबिनेट सचिव रैंक के अधिकारियों में ओबीसी जाति की भागीदारी का जिक्र कर सरकार पर हमलावर भी हुए। लेकिन वैसा नतीजा नहीं मिला जैसे नतीजे की विपक्षी पार्टियों को उम्मीद थी। ये मुद्दा जनता को कनेक्ट नहीं कर पाया। इसके पीछे वजह को लेकर कहा जा रहा है कि ओबीसी आरक्षण का लाभ हर राज्य में कुछ गिनी-चुनी जातियों तक ही सीमित रह गया। बहुत सी जातियों तक इसका लाभ नहीं पहुंच पाया और ये एक बड़ी वजह है कि लोवर ओबीसी इसे लेकर उदासीन है।
प्रदेश की करीब 60 सीटों पर ब्राह्मण और 45 सीटों पर ठाकुर यानी राजपूत डिसाइडिंग फैक्टर
एक फैक्टर सवर्ण वोट का भी है। मध्य प्रदेश की बात करें तो सवर्ण आबादी 15 फीसदी के करीब होने का अनुमान है। इंडिया टीवी सीएनएक्स ओपिनियन पोल के मुताबिक प्रदेश की करीब 60 सीटों पर ब्राह्मण और 45 सीटों पर ठाकुर यानी राजपूत मतदाता डिसाइडिंग फैक्टर साबित हो सकते हैं। राजस्थान की बात करें तो केवल ब्राह्मणों की आबादी करीब 13 फीसदी होने का अनुमान है। ब्राह्मण मतदाता सूबे की 30 सीटों पर हार-जीत करते हैं। राजपूत समाज का भी राजस्थान की सियासत में मजबूत दखल है। 200 सदस्यों वाली राजस्थान विधानसभा की करीब पांच दर्जन से अधिक सीटें ऐसी हैं, जिन्हें लेकर कहा जाता है कि यहां सवर्ण मतदाता जीत-हार तय करने की स्थिति में हैं। ऐसे में अगर सवर्ण छिटके तो कांग्रेस के लिए सत्ता की राह मुश्किल हो सकती है।