पड़ोसी देशों में चीन को चौतरफा नाक में दम कर रहे हैं पीएम नरेंद्र मोदी

नई दिल्ली
भारत और चीन के बीच कूटनीतिक स्तर पर पर्दे के पीछे जबर्दस्त जोर अजमाइश चल रही है। चीन जहां दक्षिण एशिया के छोटे-छोटे देशों में सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अड्डों का निर्माण करके भारत को घेरने की रणनीति बना रहा है वहीं, भारत भी चीन पर चौतरफा दबाव बनाने में लगा हुआ है।
गौरतलब है कि चीन अपनी मोतियों की माला की नीति (स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स पॉलिसी) के तहत दक्षिण एशिया के छोटे-छोटे देशों में सामरिक एवं आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अड्डों का निर्माण करके भारत को घेरने की लंबे समय से जीतोड़ कोशिश कर रहा है। इसलिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपने पड़ोस में चीन की मंशा पूरी नहीं होने देने की आक्रमक नीति पर अग्रसर हैं। ऐसे में दक्षिण एशिया दो शक्तियों के बीच युद्धभूमि बनता दिख रहा है।
मालदीव में बदली तस्वीर
कुछ दिनों पहले ही पीएम मोदी ने मालदीव के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया था। गौरतलब है कि पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन के दौर में मालदीव के साथ भारत के रिश्ते में खटास आ गई थी। भारतीयों को वर्क वीजा देने पर पाबंदी, चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता जैसे यामीन के फैसलों ने भारत को चिंता में डाल दिया था। लेकिन, अब वहां की नई सरकार चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता तोड़ने का ऐलान कर चुकी है।
फंडिंग के जरिए भारत को घेरने की चीनी चाल
दरअसल, चीन ने पड़ोसी देशों में बुनियादी ढांचों के निर्माण के लिए बड़े पैमाने पर फंडिंग करके भारत को घेरने की चाल चली। लेकिन, जब चीन की फंडिंग 'कर्ज के जाल' के रूप में प्रकट होने लगी तो भारत के पड़ोसी देशों की नींद खुली और उन्हें आर्थिक प्रगति के लिए भारत की ओर से मुहैया किए जा रहे अवसरों की महत्ता समझ में आने लगी। इसका नतीजा यह हुआ कि अब वे देश चीन के चंगुल से निकलकर भारत के साथ आर्थिक संबंध स्थापित करने को उत्सुक दिख रहे हैं।
श्रीलंका में भारत की भूमिका
इस तरह, भारत के पड़ोसी देशों में चीन का प्रभाव घटाने के मोदी के अथक प्रयासों से दोनों देशों के बीच शक्ति संतुलन को लेकर खींचतान बरकरार है। श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे को सत्ता से हटाने के लिए भारत ने मैत्रीपला सिरिसेना और रानिल विक्रमसिंघे के बीच गठबंधन कराने में अपनी भूमिका निभाई। राजपक्षे ने चीन को हंबनटोटा बंदरगाह को लीज पर दे दिया था। इसके अतिरिक्त, उनकी सरकार ने कोलंबो बंदरगाह के निर्माण एवं चीन के समुद्री जहाजों को वहां आने की अनुमति भी दे दी थी। इससे चीन को श्रीलंका में रणनीतिक प्रवेश मिल गया था। विक्रमसिंघे ने अब चीन के साथ हुई पुरानी डील को खत्म कर दिया और हंबनटोटा एयरपोर्ट के संचालन के लिए भारत के साथ समझौता कर लिया। हालांकि श्रीलंका में राजनीतिक उथल-पुथल के कारण भारत अभी भी चिंतित है।
नेपाल में चीन को मिली मात
यह सच है कि चीन की आर्थिक ताकत के मद्देनजर उसे मात देने के लिए भारत को और कड़े प्रयास करने होंगे। यही वजह है कि पीएम मोदी की 'पड़ोसी सबसे पहले' की आक्रामक नीति पर बेहद तेजी से काम हो रहा है। कुछ महीनों पहले नेपाल की एक पनबिजली परियोजना चीन के हाथ से निकल गई। चीन ने इसके पीछे की वजह यह बताया कि वह हजारों परिवारों को दूसरी जगह बसाने को तैयार नहीं था। हालांकि, बताया जाता है कि इसके पीछे वास्तविक कारण फिर से भारत ही रहा। भारत ने कथित तौर पर नेपाल से स्पष्ट कह दिया था कि वह इस परियोजना से पैदा हुई बिजली नहीं खरीदेगा। इससे चीन समझ गया कि छोटे से देश नेपाल में इस परियोजना से पैदा हुई बिजली की पूरी खपत नहीं हो पाएगी और उसे नुकसान हो जाएगा, इसलिए उसने मजबूरन इस परियोजना से अपना हाथ खींच लिया।
भारत के हक में बांग्लादेश का फैसला
भविष्य में भी चीन की मंशा को नाकामयाब करने को लेकर भारत की उम्मीद को इसलिए बल मिल रहा है क्योंकि चीन की इन्फ्रास्ट्रक्चर फंडिंग को लेकर पड़ोसी देशों में खुद ही शंका पैदा होने लगी है। इसका एक उदाहरण बांग्लादेश के फैसले में देखा जा सकता है। चीन ने बांग्लादेश को पद्मा नदी पर रेल एवं सड़क पुल निर्माण के लिए फंडिंग का लालच दिया, लेकिन बांग्लादेश ने इस लालच में न आकर अपने पैसे से यह निर्माण कार्य पूरा करने का फैसला किया। हालांकि, इस प्रॉजेक्ट में कुछ चीनी कंपनियां काम कर रही हैं, लेकिन बांग्लादेश ने चीन से कोई कर्ज नहीं लिया है। बांग्लादेश न केवल चीन से कर्ज को लेकर काफी सतर्कता बरत रहा है, बल्कि उसने अपने यहां इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स में काम करने की इच्छुक चीनी कंपनियों को नकारा है। इतना ही नहीं, उसने कुछ चीनी कंपनियों को ब्लैकलिस्ट भी कर चुका है।