मुंबई के रहवासी, काशी से मुहब्बत, अब दुनिया छोड़ गए 

मुंबई के रहवासी, काशी से मुहब्बत, अब दुनिया छोड़ गए 

वाराणसी।  
‘संस्कृत बहुत ही सरल और ज्ञान की भाषा है। सरकार को उसे प्रश्रय देना चाहिए। नहीं तो यह हमारा काम है कि हम उसे उसके लिए मजबूर कर दें-यह कहना था पं. गुलाम दस्तगीर विराजदार का। पंडितजी के लिए काशी दूसरे घर जैसी थी, जहां वह मुंबई से वर्ष में चार बार त्रैमासिक ‘विश्वभाषा के संपादन के लिए आया करते थे। काशी के विश्व संस्कृत प्रतिष्ठान ने उन्हें अपना महासचिव बनाया था। दिवंगत काशी नरेश डॉ. विभूति नारायण सिंह जब भी मुंबई में होते, उनके घर जरूर आया करते थे। अब उनकी सिर्फ यादें रह गईं। संस्कृत के इस प्रकांड विद्वान का गुरुवार को महाराष्ट्र के सोलापुर में ‌87 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

गुलाम दस्तगीर को बहुत करीब से जाना-समझा और उन पर कई स्टोरी छापीं जो दुनियाभर में चर्चा का विषय बनीं। विमल मिश्र उन्हें याद करते हुए कहते हैं कि मुख से धाराप्रवाह झरते मंत्र व हिंदू धार्मिक आख्यान, संस्कृतमय संभाषण और बायोडाटा। सोलापुर अवश्य गुलाम साहब का गृहनगर था, पर उनकी कर्मभूमि थी मुंबई, जहां मराठा मंदिर स्कूल के संस्कृत विभाग में वह शिक्षक रहे। वर्ली स्थित उनके घर पर कुरान और मुस्लिम मजहबी किताबों के साथ रामायण, महाभारत, वेद, पुराण-उपनिषदों से भरे ताखे व आलमारियां देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता था।

गुलाम साहब हिंदी, मराठी, कन्नड़, उर्दू, अरबी और अंग्रेजी के विद्धान थे, पर उनका पहला प्रेम थी संस्कृत। यहां तक कि अपने तीनों बच्चों के विवाह की पत्रिका भी उन्होंने संस्कृत में ही छपवाई थी। वह सूफी संत सैयद अहमद बदवी की दरगाह के मुतवल्ली (प्रमुख) और वर्ली की जंगली पीर दरगाह के ट्रस्टी थे। हदीस, कुरान और इस्लामी तहजीब के माहिर, पर संस्कृत पुराणों और हिंदू धर्मशास्त्रों के भी उद्भट् विद्वान।

विमल मिश्र बताते हैं कि वह देश में संस्कृत के आधा दर्जन पंडितों में एक थे। कर्मकांडों पर महारत होने के कारण उन्हें शादी-विवाह, जैसे शुभ संस्कार और अंत्यक्रिया कराने के आग्रह भी मिलते रहते थे। बातचीत में वह कहा करते थे, ‘वेदों और कुरान का एक ही संदेश है-मानवता का कल्याण। केवल उसे हासिल करने के तरीके अलग-अलग हैं।