गोपाष्टमी: गायों की पूजा, उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का दिन
अरविन्द तिवारी
रायपुर। गोपाष्टमी भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है। कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष के अष्टमी तिथि यानि आज ही के दिन गोपाष्टमी त्यौहार मनाया जाता है। यह तिथि गायों की पूजा, प्रार्थना, उनके प्रति कृतज्ञता और सम्मान प्रदर्शित करने के लिये समर्पित है। गाय पृथ्वी का ही एक रूप है। गायों की रक्षा करने के कारण ही भगवान श्रीक्षण जी का अतिप्रिय नाम गोविन्दज् पड़ा। हिन्दू संस्कृति में गाय का विशेष स्थान हैं और उन्हें माँ का दर्जा दिया गया है। हमारी भारत भूमि गोमाताओं की ही भूमि है इसलिये सम्पूर्ण भारत को गोचर कहा गया है। हमारे भारत का पूरा इतिहास गोमाताओं के इर्द ङ्क गिर्द ही है, हमारे पूर्वज या तो गोपालक हुये या गोसेवक हुये या फिर गोरक्षक हुये हैं। देश के सबसे उत्तरी भाग में स्थित गंगा मैया का उद्गम स्थल गंगोत्री है, जिसे गोमुखी कहते हैं। गोमुखी का अर्थ है जिसका मुख गायों की ओर हो और इसी गोमुखी के नीचे का पूरा भारत गोमाताओं की भूमि है। गोमाता भारत में सभी जाति, वर्ग समूह के सभी वर्षों में एकता का जीता जागता प्रतीक है। प्राचीन काल में विदेशी भारत की पहचान बताते हुये कहते थे कि धरती के जिस भूखंड पर पहुंचकर तुम्हें वहां गाय सुखो दिखे तो समझ जाना वह भूखंड भारत है। हिंदू धर्म में वैसे तो सदैव ही गौ माता की पूजा का विधान बताया गया है, इसमें सभी देवी देवताओं का वास है। गाय आध्यात्मिक और दिव्य गुणों की स्वामिनी है। गोपाष्टमी पर्व के बारे में विस्तृत जानकारी देते हुये अरविन्द तिवारी ने बताया कि गोपाष्टमी के शुभ अवसर पर घरों एवं गौशालाओं में गोसंवर्धन हेतु गौ पूजन का आयोजन किया जाता है। गौमाता पूजन कार्यक्रम में सभी लोग परिवार सहित उपस्थित होकर पूजा अर्चना करते हैं। सभी लोग गौ माता का पूजन कर उसके वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक महत्व को समझकर गौ रक्षा व गी संवर्धन का संकल्प करते हैं। शास्त्रों में गोपाष्टमी पर्व पर गायों की विशेष पूजा करने का विधान निर्मित किया गया है। इसलिये कार्तिक माह की शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को प्रातः काल गौओं को स्रान कराकर, उन्हें सुसज्जित करके गन्ध पुष्पादि षोडशोपचार से उनका पूजन करना चाहिये। इसके पश्चात यदि संभव हो तो गायों के साथ कुछ दूर तक चलना चाहिये। गोपाष्टमी से जुड़े कई कहानियाँ प्रचलित हैं। एक पौराणिक कथा अनुसार बालक कृष्ण ने माँ यशोदा से गायों की सेवा करनी की इच्छा व्यक्त करते हुये कहा कि माँ मुझे गाय चराने की अनुमति मिलनी चाहिये। उनके कहने पर शांडिल्य ऋषि द्वारा अच्छा समय देखकर उन्हें भी गाय चराने ले जाने दिया जो समय निकाला गया, वह गोपाष्टमी का शुभ दिन था। भगवान जो समय कोई कार्य करें वही शुभ-मुहूर्त बन जाता है। उसी दिन भगवान ने गौ चारण आरम्भ किया और वह शुभ तिथि थी कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष अष्टमी, भगवान के गौ-चारण आरम्भ करने के कारण यह तिथि गोपाष्टमी कहलायी। माता यशोदा ने बाल कृष्ण के श्रृंगार किया और जैसे ही पैरो में जूतियाँ पहनाने लगी तो बाल कृष्ण मना करते हुये बोले मैव्या यदि मेरी गौयें जूतियाँ नहीं पहनती तो मैं कैसे पहन सकता हूँ ? और भगवान जब तक वृन्दावन में रहे, भगवान ने कभी पैरों में जूतियाँ नहीं पहनी। आगे-आगे गाय और उनके पीछे बाँसुरी बजाते भगवान उनके पीछे बलराम और श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुये ग्वाल-गोपाल इस प्रकार से विहार करते हुये भगवान् पर शांडिल्य ऋषि द्वारा अच्छा समय देखकर उन्हें भी गाय चराने ले जाने दिया जो समय निकाला गया, वह गोपाष्टमी का शुभ दिन था। भगवान जो समय कोई कार्य करें वही शुभ-मुहूर्त बन जाता है। उसी दिन भगवान ने गौ चारण आरम्भ किया और वह शुभ तिथि थी कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष अष्टमी, भगवान के गौ-चारण आरम्भ करने के कारण यह तिथि गोपाष्टमी कहलायी। माता यशोदा ने बाल कृष्ण के श्रृंगार किया और जैसे ही पैरो में जूतियाँ पहनाने लगी तो बाल कृष्ण मना करते हुये बोले मैय्या यदि मेरी गौयें जूतियाँ नहीं पहनती तो मैं कैसे पहन सकता हूँ? और भगवान जब तक वृन्दावन में रहे, भगवान ने कभी पैरों में जूतियाँ नहीं पहनी। आगे-आगे गाय और उनके पीछे बाँसुरी बजाते भगवान उनके पीछे बलराम और श्रीकृष्ण के यश का गान करते हुये ग्वाल- गोपाल इस प्रकार से विहार करते हुये भगवान् ने उस वन में प्रवेश किया तब से भगवान् को गौ-चारण लोला का आरम्भ हुआ। हिंदू शास्त्रों के अनुसार, गायों को भगवान कृष्ण की सबसे प्रिय माना जाता है। एक अन्य पौराणिक कथाओं के अनुसार गोपाष्टमी भगवान श्रीकृष्ण के समय से ही मनायी जाती है। ऐसा माना जाता है कि भगवान इंद अपने अहंकार के कारण वृंदावन के सभी लोगों को अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहते थे। इसलिये उन्होंने बृज के पूरे क्षेत्र में बाढ़ लाने का फैसला किया ताकि लोग उनके सामने झुक जायें और इसलिये वहाँ सात दिन तक बारिश हुई। इंद्र के प्रकोप से गोप गोपियों और गायों को बचाने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से अष्टमी तक गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी ऊँगली पर उठा लिया। आठवें दिन भगवान इंद्र को उनकी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा माँगी। तब भगवान श्रीकृष्ण पर गौमाता ने दूध की वर्षा की वह विशेष दिन
गोपाष्टमी के रूप में मनाया जाता है। यह दिन बछड़े और गायों की एक साथ पूजा व प्रार्थना करने का दिन है। इस दिन घरों, मंदिरों और गोशालाओं में गायों की षोडशोपचार पूजन की जाती है। इस दिन गाय, गोवत्स (बछड़ों) तथा गोपालों के पूजने का विधान है। हिंदू धर्म में गाय को सबसे पवित्र जीव माना गया है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार कामधेनु की उत्पत्ति देवता और असुरों के समुद्र मंथन के दौरान हुई थी। कहा जाता है कि गोपाष्टमी की संध्या पर गाय की पूजा करने वालों को सुख समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। गाय के रीढ़ में सूर्यकेतू नाड़ी होती है जिसमें सर्वरोगनाशक और सर्वविषनाशक गुण होते हैं। सूर्यकेतू नाड़ी जब सूर्य की रोशनी के संपर्क में आती है तो स्वर्ण का उत्पादन करती है। ये स्वर्ण गाय के दूध, मूत्र और गोबर में मिल जाता है। इस तरह गाय के मिलने वाले इन चीजों का विशेष महत्व होता है, इसका इस्तेमाल रोजमर्रा के जीवन में हमारे पूर्वज करते आये हैं। वैज्ञानिक तौर पर भी यह सिद्ध हो चुका है कि गाय एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ऑक्सीजन लेती और छोड़ती भी है, वहीं मनुष्य सहित दूसरे प्राणी ऑक्सीजन लेते हैं और कार्बन डाई ऑक्साइड छोड़ते हैं। इस तरह गाय के आसपास रहने से ही ऑक्सीजन की भरपुर मात्रा प्राप्त की जा सकती है। शास्त्रकारों के अनुसार आत्मा के विकास यात्रा में पशु-पक्षी की योनि से मुक्ति पाने का द्वार गाय से होकर हो जाता है। कहते हैं कि गाय योनि के बाद मनुष्य योनि में आना होता है।
गाय की उपेक्षा से ही हुई है भारत की दुर्दशा : अरविन्द तिवारी
ऋग्वेदीय पूर्वाम्नाय श्रीगोवर्द्धनमठ पुरीपीठाधीश्वर अनन्तश्री विभूषित श्रीमज्जगदुरु शंकराचार्य स्वामीश्री निश्चलानन्द सरस्वतीजी महाभाग श्री सुदर्शन संस्थानम पुरी शंकराचार्य आश्रम मीडिया प्रभारी अरविन्द तिवारी ने कहा- आज पूरा देश गोपाष्टमी मनाने की तैयारियों में जुटा हुआ है। भारतीय संस्कृति में गाय को हमारे जीवन का अभिन्न अंग माना गया है। हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में गाय को पूजनीय मानकर हर पर्व और उत्सव पर गाय की पूजा की परंपरा को महत्व दिया गया है। हमारे पूर्वज गाय के अंदर विद्यमान उन तत्वों से परिचित थे जिनकी खोज इस युग में वैज्ञानिक कर रहे है। गाय धर्म की मूल है, उसके बिना कोई सद्कर्म और शुभकर्म नहीं हो सकती। गवां अंगेषु तिष्ठन्ति भुवनानि चतुर्दश गाय के शरीर में चौदह लोक विराजते हैं।
तुष्टास्तु गावः शमयन्ति पाएं, दत्तास्तु गावस् त्रिदिवं नयन्ति। संरक्षिताच उपनयन्ति वित्तं, गोभिर्न तुल्यं धनमस्ति किचित।।
प्रसत्र होने पर गायें सारे पाप, ताप को धो डालती हैं और दान देने पर सीधे स्वर्ग लोक को ले जाती है, विधिपूर्वक पालन करने पर धन, वैभव, समृद्धि का रूप धारण कर लेती है, गायों के समान संसार में कोई भी सम्पत्ति या समृद्धि नहीं है। जब कोई चीज वर्णशंकर बन जाती है तो उसका प्रभाव समाप्त हो जाता है इसलिये विदेशियों ने गाय को वर्णशंकर बना दिया। जब से हमने गौमाता का तिरस्कार किया है तब से वह अपने सारी शक्तियों को छिपा दी है। आज भी अगर उन्हें कोई वशिष्ठ जैसा गौपुत्र मिल जाये तो वह अपनी सारी शक्ति प्रकट कर देगी। भारतीयों ने जब से गौमाता की उपेक्षा की तभी से भारत की दुर्दशा का प्रारंभ हुआ है। गोसेवा सम पुण्य ना कोई ड्डू गो सेवा के समान कोई पुण्य नहीं है। ये इहलोक और परलोक में भी हमारा उपकार करती है, पृथ्वी के सप्त आधारभूत स्तम्भों में गाय प्रमुख स्तम्भ है। गौमाता के गोमय गोमूत्र सहित उनके वास, प्रश्वास में भी असुरत्व को नष्ट करने की शक्ति है। सर्वदेवमयी गौमाता चैतन्य, प्रेम, करूणा त्याग, संतोष, सहिष्णुता आदि दिव्यगुणों से परिपूर्ण है। गाय के रोम रोम में सात्विक विकिरण विद्यमान है रहती है, इससे मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। बड़े दुख की बात है कि समस्त धमों, पुण्यों, सुख संपत्ति के भंडार एवं समस्त फलदायिनी गौमाता का वर्तमान में घोर तिरस्कार हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप देश में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में रक्तपात, हिंसा, और उपद्रव आदि की भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई है।
प्राचीन परंपरा में धर्म के बिना राजनीति विधवा मानी गई है परंतु वर्तमान राजनीति में धर्म का कोई स्थान नहीं है। आज विश्व के सभी शासनतंत्र धर्म के वास्तविक स्वरूपों को ना समझ कर दिशाहीन होकर जनभावनाओं के साथ जनता का और स्वयं का अहित कर रहे हैं। इसमें विश्वरूप धर्म और विश्वधारणो गौ माता की उपेक्षा के साथ-साथ समस्त देवी देवताओं के प्रति उपेक्षा तथा अश्रद्धा का भाव ही भारत की दुर्दशा का प्रधान कारण है।