शिवराज ही सरकार और संगठन, बस यही दांव उल्टा पड़ रहा है

भोपाल
भाजपा के पूर्व संगठन महामंत्री कृष्णमुरारी मोघे कहते हैं कि ऐसे कई अनुभव हैं, जब बाग़ी लोग गुस्से में चुनाव मैदान में तो उतर जाते हैं लेकिन बाद में पार्टी हित को देखकर घोषित प्रत्याशी के लिए प्रचार में लग जाते हैं.
ये पहला मौका है जब मध्यप्रदेश भाजपा में अनुशासन की इस तरह धज्जियां बिखरती दिखी हों. भाजपा के 53 बाग़ी चुनाव मैदान में हैं जिन्हें संगठन ने पार्टी से बाहर निकाला है. इनमे पूर्व कैबिनेट मंत्री, संगठन के ज़िम्मेदारी पदाधिकारी, पूर्व विधायक शामिल हैं. राजनीतिक अनुमान लगाया जा रहा है कि ये बाग़ी 40 से ज़्यादा सीटों पर भाजपा का गणित गड़बड़ा सकते हैं.
बागियों की इतनी बड़ी फौज ने भाजपा हाईकमान को सोचने पर मजबूर कर दिया है. इस सबकी वजह संगठन का कमज़ोर होना और शिवराज के सिवाय किसी और को तवज्जो ना देना माना जा रहा है. इसका खामियाज़ा अब चुनाव के रण में दिखाई देने लगा है.
बाग़ियों से मुश्किल
ग्वालियर, चंबल, विंध्य, मालवा की कई सीटों पर हालात ऐसे बन रहे हैं जहां भाजपा की इन बाग़ियों के कारण राह मुश्किल होती दिखाई दे रही है. पूर्व मंत्री सरताज सिंह, रामकृष्ण कुसुमारिया, राजकुमार मेव, समीक्षा गुप्ता जैसे बाग़ियों को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. इतनी बड़ी संख्या में बाग़ियों से निपटने में नाकाम बीजेपी अब चिंता में है.
संगठन कमज़ोर
चौथी बार शिवराज सरकार के नारे के साथ आगे बढ़ रही भाजपा में इस बार सरकार, संगठन से ऊपर दिखाई दे रही है. नेताओं के कार्यकर्ताओं के साथ व्यक्तिगत संबंध जो कभी भाजपा की सबसे बड़ी ताकत होते थे, वो इस बार नदारद हैं. संगठन के नेता बाग़ियों को मनाने के लिए मैदान में उतरे. उनकी मान-मनोव्वल के सारे प्रयास करते रहे लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. पूर्व मंत्री कुसुमारिया को मनाने पार्टी उपाध्यक्ष प्रभात झा हेलिकॉप्टर से उनके घर पहुंचे. डेढ़ घंटे तक इंतज़ार किया लेकिन कुसमारिया मिलने तक के लिए तैयार नहीं हुए.
रायशुमारी कारण
बाग़ियों का ये अंदाज़ बताता है कि वो सरकार ही नहीं संगठन से भी नाराज़ हैं. आखिर ऐसे हालात क्यों बनें? इसे लेकर भाजपा हलकों में कई तरह की चर्चा हैं. सबसे पहले तो भाजपा की ज़िला स्तर पर हुई रायशुमारी, प्रदेश चुनाव समिति की बैठकों पर भी गौर करने की ज़रूरत है. दूसरा कारण सरकार का संगठन पर भारी होना भी इसकी जड़ में है.
कड़वा सच नहीं बताया
चुनाव समिति के एक पदाधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं कि संगठन का सबसे पहला काम चुनाव में ऐसे लोगों पर लगाम कसना है जो स्वयं को बड़ा नेता मानकर चल रहे हैं और टिकट के सपने देख रहे हैं. ऐसे लोगों से रायशुमारी और प्रदेश चयन समिति की बैठकों के पहले ही निपटाना पड़ता है. इसका एक ही तरीका है. उन्हें गोल- मोल जवाब देने की बजाय कड़वा और सच बताया जाए. लेकिन इस बार ये काम बहुत प्रभावी ढंग से नहीं हुआ. प्रदेश चुनाव समिति औपचारिक रहीं. अधिकतर फैसले दिल्ली में केंद्रीय चुनाव समिति में हुए. इसलिए सारे दावेदार अंतिम दौर तक अपनी उम्मीदवारी की आस पालते रहे. उन्हें बड़ा झटका तब लगा जब उनका टिकट नहीं आ पाया. सूची भी बहुत देर से जारी हुई. तब तक कई नेता टिकट को प्रतिष्ठा का मुद्दा बना चुके थे.
भगत की नरम शैली
संगठन से जुड़े कुछ लोग मानते हैं कि संगठन से ऊपर सरकार क्यों रही, इसके कई कारण हैं. भाजपा के संगठन महामंत्री सुहास भगत नरम कार्यशैली रखते हैं. उन्हें भाजपा कार्यालय में कभी भी समानांतर सत्ता चलाते हुए नहीं देखा गया. जिस तरह पूर्व संगठन महामंत्री अरविंद मेनन, कप्तानसिंह सोलंकी की दबंग कार्यशैली के साथ सत्ता पर पकड़ रखते थे या नेताओं और कार्यकर्ताओं पर अपनी धाक रखते थे.
बड़े नेता अब सक्रिय
भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की बात करें तो राकेश सिंह को बने हुए अभी छह महीने भी नहीं हुए हैं. वे पूरे प्रदेश के नेताओं कार्यकर्ताओं को जानते तक नहीं हैं. रहा सवाल प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुध्दे का तो वो एक महीने पहले ही यहां सक्रिय हुए हैं. तोमर, चुनाव प्रबंधन देख रहे हैं लेकिन पिछले चुनाव की तरह उनकी सक्रियता या पकड़ इस बार नहीं दिख रही है.
कैंपेन शिवराज के आस-पास
मध्यप्रदेश भाजपा का पूरा चुनाव कैंपेन शिवराज सिंह के आसपास चल रहा है. कई बाग़ी नेताओं ने मान –मनुहार करने गए नेताओं से कहा कि उन्हें अभी तक कुछ नहीं मिला है. पिछले चुनाव के दौरान दिया गया आश्वासन भी पूरा नहीं हुआ है. इसलिए वो पार्टी से अलग होकर अपनी राह चुन रहे हैं.
कार्रवाई हो रही है
भाजपा के प्रदेश प्रभारी विनय सहस्त्रबुध्दे कहते हैं 15 साल से अगर पार्टी सत्ता में हो तो कार्यकर्ताओं की अपेक्षा बहुत बढ़ जाती है. हम ऐसे सभी बाग़ियों के ख़िलाफ पार्टी संविधान के तहत कार्रवाई कर रहे हैं. उनकी वजह से पार्टी को कोई संकट नहीं है.
संकट नहीं
भाजपा के पूर्व संगठन महामंत्री कृष्णमुरारी मोघे कहते हैं कि ऐसे कई अनुभव हैं, जब बाग़ी लोग गुस्से में चुनाव मैदान में तो उतर जाते हैं लेकिन बाद में पार्टी हित को देखकर घोषित प्रत्याशी के लिए प्रचार में लग जाते हैं.