सुप्रीम कोर्ट में आज भी जारी रहेगी बहस: धारा 377

नई दिल्ली
समलैंगिकता को अपराध के तहत लाने वाली संविधान की धारा 377 की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को भी सुनवाई होनी है. मंगलवार को कोर्ट में समलैंगिकता को अपराधमुक्त करने की मांग कर रहे याचिकाकर्ताओं के वकीलों के तर्क सुने गए.
इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ कर रही है. पीठ के पांच जजों में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के अलावा चार और जज हैं, जिनमें आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़ और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं.
इससे पहले, देश की सर्वोच्च अदालत ने सोमवार को इस मामले की सुनवाई में देरी से इनकार कर दिया था. केंद्र सरकार चाहती थी कि इस मामले की सुनवाई कम से कम चार हफ्तों बाद हो. लेकिन सुप्रीम कोर्ट इसपर सहमत नहीं हुआ.
मंगलवार को क्या हुआ सुनवाई में
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए अरविंद दातार ने कहा कि 1860 का समलैंगिकता का कोड भारत पर थोपा गया था. यह तत्कालीन ब्रिटिश संसद का इच्छा का प्रतिनिधित्व भी नहीं करता था. उन्होंने कहा, 'अगर यह कानून आज लागू किया जाता तो यह संवैधानिक तौर पर सही नहीं होता.' इस पर कोर्ट ने उनसे कहा- आप हमें भरोसा दिलाइए कि अगर आज की तारीख में कोई ऐसा कानून बनाया जाता है तो यह स्थायी नहीं होगा.
अरविंद दातार ने कहा, 'अगर किसी व्यक्ति का यौन रुझान अलग है तो इसे अपराध नहीं कहा जा सकता. इसे प्रकृति के खिलाफ नहीं कहा जा सकता. समलैंगिकता बीमारी नहीं है. यौन रुझान और लैंगिक पहचान दोनों समान रूप से किसी की प्राकृतिक प्रवृत्ति के तथ्य हैं.' बेंच में इकलौती जज इंदु मल्होत्रा ने कहा कि समलैंगिकता केवल पुरुषों में ही नहीं जानवरों में भी देखने को मिलती है. वह दातार के समलैंगिता को सामान्य और अहिंसक बताने और मानवीय यौनिकता का एक रूप बताने पर टिप्पणी कर रही थीं.
केंद्र सरकार की ओर से पेश हुए अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि यह केस धारा 377 तक सीमित रहना चाहिए. इसका उत्तराधिकार, शादी और संभोग के मामलों पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए. इस पर मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने टिप्पणी की कि यह मामला केवल धारा 377 की वैधता से जुड़ा हुआ है. इसका शादी या दूसरे नागरिक अधिकारों से लेना-देना नहीं है. वह बहस दूसरी है.
पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी याचिकाकर्ताओं की ओर से धारा 377 को हटाने के लिए पेश हुए. उन्होंने कहा, 'धारा 377 के होने से एलजीबीटी समुदाय अपने आप को अघोषित अपराधी महसूस करता है. समाज भी इन्हें अलग नजर से देखता है. यौन रुझान और लिंग (जेंडर) अलग-अलग चीजें हैं. यह केस यौन प्रवृत्ति से संबंधित है. इस केस में जेंडर का कोई लेना-देना नहीं है. यौन प्रवृत्ति का मामला पसंद से भी अलग है. यह प्राकृतिक होती है. यह पैदा होने के साथ ही इंसान में आती है. पश्चिमी दुनिया में इस विषय पर शोध हुए हैं. इस तरह की यौन प्रवृत्ति के कारण वंशानुगत होते हैं. धारा 377 'प्राकृतिक' यौन संबंध के बारे में बात करती है. समलैंगिकता भी प्राकृतिक है, यह अप्राकृतिक नहीं है.'
रोहतगी ने कहा, 'धारा 377 मानवाधिकारों का हनन करती है. समाज के बदलने के साथ ही नैतिकताएं बदल जाती हैं. हम कह सकते हैं कि 160 साल पुराने नैतिक मूल्य आज के नैतिक मूल्य नहीं होंगे. ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के 1860 के नैतिक मूल्यों से प्राकृतिक सेक्स को परिभाषित नहीं किया जा सकता है. प्राचीन भारत की नैतिकता विक्टोरियन नैतिकता से अलग थी.
वेणुगोपाल नहीं रखेंगे सरकार का पक्ष
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने समलैंगिकता के मुद्दे से जुड़ी विभिन्न याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की रिव्यू याचिका की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया. बता दें कि अटॉर्नी जनरल की जगह मंगलवार को अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने सरकार का पक्ष रखा.
केके वेणुगोपाल ने कहा है कि उनकी राय इस मामले में केंद्र सरकार से अलग है, इसलिए वह इस मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से पेश नहीं होंगे.
इस बारे में पूछे जाने पर वेणुगोपाल का साफ शब्दों में कहा, 'मैंने सरकार का जो पक्ष रखा था अब सरकार की राय उससे भिन्न है. यही वजह है कि मैं इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने पेश नहीं हो रहा हूं. कायदे से हो भी नहीं सकता. वैसे मेरी अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से इस मुद्दे के तकनीकी और कानूनी पहलुओं के साथ दलीलों और तर्कों पर काफी गंभीर चर्चा हुई है.'
के के वेणुगोपाल ने कहा कि दिल्ली हाईकोर्ट में मामले की सुनवाई कर फैसला देने वाले जज काफी अनुभवी होकर सुप्रीम कोर्ट आ चुके हैं.
जेटली की भी अलग है सरकार से राय
केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली पहले ही धारा 377 को हटाने की वकालत कर चुके हैं. जेटली ने 2015 में ही कहा था कि सुप्रीम कोर्ट को आईपीसी की धारा 377 पर पुनर्विचार करना चाहिए. उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को समलैंगिकता के मामले में दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला नहीं बदलना चाहिए था.
जेटली का कहना था कि होमोसेक्शुअलिटी पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला दुनिया भर में लिए जा रहे कानूनी फैसलों से मेल नहीं खाता है. उन्होंने कहा था कि दुनिया भर में लोग अलग-अलग सेक्शुअल ओरियंटेशन्स को अपना रहे हैं. ऐसे में किसी को सेक्शुअल रिलेशंस के आधार पर जेल भेजना बहुत पुराना ख्याल लगता है.