जिन्ना विवाद से नहीं छूट सका पीछा, यूं राजनीतिक करियर में ढलान पर आते गए लालकृष्ण आडवाणी
नई दिल्ली
होली की शाम को बीजेपी ने अपनी पहली लिस्ट जारी कर लोकसभा चुनाव के माहौल को गर्म कर दिया है। पार्टी ने पहली सूची में 184 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की, लेकिन सबसे ज्यादा चर्चित गांधीनगर सीट से आडवाणी की जगह अमित शाह का उतरना रहा। आडवाणी भले ही आज चुनावी राजनीति से परे हटे हैं, लेकिन उनके करियर का ढलान उसी वक्त से शुरू हो गया था, जब 2005 में आडवाणी ने पाकिस्तान जाकर जिन्ना को सेकुलर बताया था। जिन्ना की मजार पर जाकर आडवाणी ने उन्हें 'सेकुलर' और 'हिंदू मुस्लिम एकता का दूत' करार दिया था। 1984 में पार्टी को मिली करारी हार के बाद उसे देश में कांग्रेस के विकल्प के तौर पर खड़ी करने वाले लोगों में से प्रमुख रहे आडवाणी ने 90 के दशक में रथायात्रा निकालकर देश भर में चर्चा बटोरी थी। सोमनाथ से अयोध्या की उनकी रथयात्रा ही थी, जिसके चलते बीजेपी और वह समानांतर रूप से देश में बड़े होते गए।
पीएम उम्मीदवार भी बने, लेकिन वह बात नहीं रही
उन्हें कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी नेता के तौर पर जाना जाता था, लेकिन पाकिस्तान में जिन्ना की तारीफ करना इस छवि के उलट था। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि उस एक प्रसंग से उनकी छवि ऐसी बिगड़ी कि फिर करियर में एक तरह से वह ढलान पर आ गए। पार्टी ने भले ही 2009 में उन्हें पीएम उम्मीदवार चुना था, लेकिन आडवाणी पहले जैसी रंगत में कभी न आ पाए।
मोदी का विरोध कर और किनारे हुए आडवाणी
इसके बाद 2014 में नरेंद्र मोदी की पीएम उम्मीदवारी का असफल विरोध करने के बाद तो वह एक तरह से किनारे ही लग गए। हालांकि आडवाणी को चुनावी राजनीति से बाहर करने अप्रत्याशित नहीं है। संघ की ओर से पीढ़िगत बदलाव के लिए दबाव और अन्य समीकरणों को देखते हुए यह पहले से ही माना जा रहा था कि आडवाणी से कहा जा सकता है कि वह युवा नेतृत्व को आगे लाने के लिए त्याग करें।