निकाह एक अनुबंध है, हिंदू विवाह की तरह संस्कार नहीं: हाईकोर्ट 

निकाह एक अनुबंध है, हिंदू विवाह की तरह संस्कार नहीं: हाईकोर्ट 

बंगलूरू, कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि मुस्लिम निकाह एक अनुबंध है, जिसके कई मतलब हैं। यह हिंदू विवाह की तरह कोई संस्कार नहीं है इसके टूटने से उत्पन्न कुछ अधिकारों व दायित्वों से पीछे नहीं हटा जा सकता। हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी भुवनेश्वरी नगर के रहने वाले एजाजुर रहमान की ओर से दाखिल की गई एक याचिका पर सुनवाई के दौरान की।

याचिका में बंगलूरू की एक पारिवारिक अदालत के प्रथम अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश के 12 अगस्त 2011 के आदेश को रद्द करने की मांग की गई है। याचिका के अनुसार रहमान ने अपनी पत्नी सायरा बानो को पांच हजार रुपये के 'मेहर' के साथ विवाह करने के कुछ महीने बाद 'तलाक' शब्द कहकर 25 नवंबर 1991 को तलाक दे दिया था।

इसके बाद रहमान ने दूसरी शादी की, जिससे वह एक बच्चे का पिता बना। वहीं, इसके बाद बानो ने गुजारा भत्ता के लिए 24 अगस्त 2002 में एक दीवानी मुकदमा दाखिल किया। पारिवारिक अदालत ने आदेश दिया था कि वादी, मामले की तारीख से अपनी मृत्यु तक या अपना पुनर्विवाह होने तक या प्रतिवादी की मृत्यु तक 3000 रुपये मासिक गुजारा भत्ता की हकदार है।

रहमान ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी है। न्यायाधीश कृष्णा एस दीक्षित ने याचिका पर सुनवाई करते हुए सात अगस्त को अपने फैसले में कहा था कि मुस्लिम निकाह कोई संस्कार नहीं है और यह इसके समाप्त होने के बाद बने कुछ दायित्वों और अधिकारों से भाग नहीं सकते। अदालत ने 25,000 रुपए के जुर्माने के साथ याचिका खारिज कर दी।

गुजारा भत्ता देना एक सच्चे मुसलमान का नैतिक कर्तव्य

न्यायमूर्ति दीक्षित ने कहा कि तलाक के जरिए विवाह बंधन टूटने के बाद भी दरअसल पक्षकारों के सभी दायित्वों एवं कर्तव्य पूरी तरह समाप्त नहीं होते हैं। अदालत ने कहा कि कानून के तहत नए दायित्व भी उत्पन्न हो सकते हैं। उनमें से एक दायित्व व्यक्ति का अपनी पूर्व पत्नी को गुजारा भत्ता देने का परिस्थितिजन्य कर्तव्य है जो तलाक के कारण अपना भरण-पोषण करने में अक्षम हो गई है। न्यायमूर्ति दीक्षित ने कुरान में सूरह अल बकराह की आयतों का हवाला देते हुए कहा कि अपनी बेसहारा पूर्व पत्नी को गुजारा-भत्ता देना एक सच्चे मुसलमान का नैतिक और धार्मिक कर्तव्य है।