जुनून और जज्बे को सलाम, 400 एकड़ के मैदान को बना दिया घना जंगल
स्विट्जरलैंड और फिलीपींस से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है
रायपुर, छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के संघकरमरी गांव में रहने वाले बुजुर्ग ग्रामीण दामोदर कश्यप ने अपनी लगन और जिद से ऐसा काम कर दिखाया, जो अब लोगों के लिए प्रेरण का सूत्र बन रहा है। जंगल को देवता मानते हुए 78 साल के बुजुर्ग आदिवासी ग्रामीण दामोदर कश्यप ने अपने जीवन का पूरा समय जंगल बनाने और उसकी रक्षा करने में लगा दिया। 78 साल के दामोदर कश्यप की उपलब्धि ये है कि दामोदर ने अब तक गांव वालों के सहयोग से लगभग 400 एकड़ से अधिक जमीन पर घना जंगल तैयार कर दिया है।
सन 1970 में जंगल लगाने का बीडा उठाया
बस्तर जिले के संघकरमरी गांव में रहने वाले बुजुर्ग ग्रामीण दामोदर कश्यप ने बताया कि 400 एकड़ से अधिक जमीन पर जंगल बनाना आसान नहीं था, इसके लिए चाहिए थी दृढ़ इच्छाशक्ति और समर्पण। दामोदर ने बताया कि सन 1970 में जब वो 12वीं की पढ़ाई कर वापस अपने गांव पहुंचे तो देखा कि गांव के पीछे की जमीन जहां कभी जंगल हुआ करता था आज वहां एक भी पेड़ नहीं है, बहुत से पेड़ वन विभाग की तरफ से कूप कटाई के नाम पर काट दिए गए थे, बाकि बचे पेड़ों को गांव वालों ने साफ कर दिया, तब दामोदर कश्यप ने पेड़ों को बचाने और इसके लिए सभी को जागरूक करने का फैसला किया।
लगाने से ज्यादा पेडों को बचाने की चुनौती
दामोदर बताते हैं कि ये काम आसान नहीं था, शुरुआत में ग्रामीणों का विरोध झेलना पड़ा, पर उन्होंने हार नहीं मानी। सन 1977 में गांव के सरपंच बने तो ताकत में इजाफा हुआ और उसके बाद फिर उन्होंने इस मुहीम में पीछे पलटकर नहीं देखा। जिस जगह पहले जंगल हुआ करते थे वहां की ठूंठ को भी बचाया जिससे प्राकृतिक तौर पर नए पौधे कोपल की तरह निकल सकें, साथ ही साथ बस्तर के मौसम के अनुकूल पौधों को लगाने का काम भी शुरू किया गया। दामोदर को पता था पौधे लगाने से ज्यादा बड़ी चुनौती है उन्हें बचाना इसलिए उन्होंने ग्रामीणों को इसके लिए तैयार कर एक नियम तैयार किया, जिसे उन्होंने ठेंगा पाली का नाम दिया।
जंगल की सुरक्षा के बनाए नियम
बस्तर ठेंगा मतलब (डंडा) होता है और पाली मतलब (पारी) और इस नियम के तहत गांव के तीन सदस्य प्रतिदिन ठेंगा मतलब डंडा लेकर जंगलों की सुरक्षा करने लगे। इस डंडे को भी विधिवत कपड़े से लपेट कर देव का रूप दिया गया, जिसे जंगलों में घुमाना अनिवार्य बताया गया, साथ ही सुरक्षा में नहीं जाने पर ग्रामीणों पर अर्थदंड भी लगाया जाने लगा। इस दौरान यदि कोई जंगलों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करता तो उसे भी पंचायत द्वारा अर्थदंड दिया जाता था। दामोदर के लगातार प्रयास से ग्रामीणों का भी हौसला बढ़ने लगा और उसी हौसले का फल है कि आज उनके गांव के आसपास 400 एकड़ में घना जंगल तैयार हो गया है। दामोदर बताते हैं कि उनके जंगल को देखने वन विभाग के अधिकारी भी आते हैं और सबसे खास बात ये कि आज तक उनके जंगलों में कभी आग नहीं लगी है।
पूरे देश में जंगल लगाने और पर्यावरण बचाने की चला रहे मुहिम
गौरतलब है कि, जंगल और पर्यावरण के प्रति इतना समर्पण होने के बावजूद भी दामोदर कश्यप को वो पहचान नहीं मिल पाई, लेकिन समय-समय पर उनका जिक्र भी कई जगहों में किया गया। यही वजह है कि आज छत्तीसगढ़ की 9वीं कक्षा के सामाजिक विज्ञान की किताब में दामोदर पर भी आर्टिकल छापा गया है, जिसे आने वाली पीढ़ी को उनके बारे में पढ़ाया जा सके। दामोदर आज देश के सभी राज्यो में जाकर पर्यावरण बचाने वाली संस्थाओं के साथ मिलकर चर्चा करते हैं कि पेड़ों को बचाने और कौन-कौन से कदम उठाए जाने चाहिए। प्रकृति के लिए उनके समर्पण को देखते हुए स्विट्जरलैंड और फिलीपींस से भी उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। दामोदर कश्यप ने कहा कि जितनी तेज रफ्तार से जंगल काटे जा रहे हैं आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ भी नहीं बचेगा। ऐसे में पर्यावरण को लेकर अभी भी लोगों को जागरूक हो जाना चाहिए, उन्होंने कहा कि पर्यावरण दिवस मनाने की बजाय पेड़ों को बचाने में ध्यान दिया जाना चाहिए।