अजीत-माया की जोड़ी भी नहीं बढ़ा सकी SC सीटों पर मतदान, सामान्य मतों पर टिकी निगाहें
रायपुर
छत्तीसगढ़ में 90 सीटों के लिए मतदान संपन्न हो चुका है। अब सबकी निगाहें चुनाव परिणाम पर टिकी है। नतीजे जो भी हों, लेकिन सबके जेहन में केवल एक सवाल है कि अलग अलग जातीय समूहों का वोट किसकी ओर जाएगा? एक बड़ा सवाल यह भी है कि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित उन 10 सीटों का क्या होगा जिन पर फिलहाल भाजपा का कब्ज़ा है और इन सीटों पर औसत मतदान घटा है वो भी तब जब दलितों की पार्टी कहे जाने वाली बहुजन समाज पार्टी और जनता कांग्रेस के गठबंधन इन सीटों पर अपनी पूरी ताकत लगाकर लड़ रहा था?
छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जाति वर्ग की आबादी वर्ष 2011 के जनगणना के लिहाज से 12 फीसदी थी। अंदाजा लगाया जा रहा है कि 2018 में इसमें 3 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। गौरतलब है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में दलितों के लिए आरक्षित 10 सीटों में से भाजपा ने 9 सीटें हासिल कर ली थी।
सरायपाली में सबसे ज्यादा तो मस्तूरी में सबसे कम मतदान
अनूसूचित जातियों के लिए आरक्षित छत्तीसगढ़ की विधानसभा सीटों में मतदाताओं ने इस बार कोई अतिरिक्त उत्साह नहीं दिखाया है। मुंगेली को छोड़ दें तो अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सभी सीटों पर मतदान 2013 की तुलना में कम हुआ है। चुनावी विशेषज्ञ इसे चौंका देने वाली बात कहते हैं। एक तरह जहां 90 सीटों पर कुल मत प्रतिशत वर्ष 2013 में मत प्रतिशत के आसपास जा टिका है, वहीं आरक्षित सीटों पर चौंका देने वाली पोलिंग हुई है।
सारंगढ़, मस्तुरी, पामगढ़, अहिवारा, और नवागढ़ में मतदान में दो से चार फीसदी की गिरावट आई है । डोंगरगढ़, सरायपाली में वर्ष 2013 की तुलना में नाममात्र की कमी दर्ज की गई है। एससी के लिए आरक्षित सीटों में सर्वाधिक पोलिंग सरायपाली सीट पर 83.04 प्रतिशत हुई है वह भी 2013 के 83.20 प्रतिशत से कम है।
सामान्य व पिछड़ों का मत होगा निर्णायक
विश्लेषक मानते हैं कि अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों पर सामान्य और पिछड़े श्रेणी के मतदाताओं की वोटिंग ही यह तय करेगी कि किस पार्टी का उम्मीदवार जीतेगा। यह नहीं भुला जाना चाहिए कि राज्य में अनुसूचित जाति के लिए जो सीटें आरक्षित हैं, उनमे अनूसूचित जाति की जनसंख्या कहीं 16 फीसदी है तो कहीं पर 32 फीसदी तक है।
हर बार चुनाव में होता यह है कि अनुसूचित जाति के वोट किसी एक पार्टी के पक्ष में ही जाते हैं और ज्यादातर सामान्य वोट दूसरी पार्टी को शिफ्ट हो जाते हैं। यह भी सत्य है कि कई आरक्षित सीटों पर सामान्य और पिछड़ों के वोट ही निर्णायक साबित होते हैं। चूंकि इस बार तीसरा मोर्चा भी चुनावी मैदान में मौजूद है, इसलिए उम्मीद यह की जा रही थी कि दलितों के वोटों का स्पष्ट विभाजन होगा और कुछ नए किस्म के परिणाम देखने को मिलेंगे।
गठबंधन पर निगाहें
पिछले चुनाव में 2013 चुनाव में जब गुरू बालकदास की अगुवाई वाली पार्टी सतनाम सेना ने कई सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े किए थे तो मतों का बंटवारा जमकर हुआ था। जिसका सीधा फायदा भाजपा को मिला और कांग्रेस को भारी नुकसान हुआ था । इस बार सतनाम सेना की जगह जकांछ और बसपा गठबंधन है।
गौरतलब है कि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 10 सीटों में से 8 सीटें बसपा के खाते में गई हैं। इनमें सारंगढ़, अहिवारा, नवागढ़, डोंगरगढ़, मस्तूरी और सरायपाली सीटें शामिल हैं जबकि आरंग और मुंगेली दो सीटें जोगी की पार्टी को मिली है। अगर वोटिंग पैटर्न और राजनीतिक विश्लेषकों को धता बता यह गठबंधन इन सीटों पर कोई उलटफेर करता है तो इससे परिणामों पर गहरा असर पड़ेगा ।
राजनीतिक विश्लेषक देवेन्द्र शुक्ला ने कहा, इन सीटों पर मत प्रतिशत का न बढऩा बताता है कि तीसरे मोर्चे की इन सीटों पर उपस्थिति का कोई ख़ास असर नहीं पड़ा है। जब जनता के पास कांग्रेस और भाजपा के अलावा एक तीसरा विकल्प मौजूद था तो यह मत प्रतिशत बढऩा चाहिए था।